Category Motivational Stories

संस्कार क्या है 1

संस्कार क्या है

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

एक राजा के पास सुन्दर घोड़ी थी। कई बार युद्व में इस घोड़ी ने राजा के प्राण बचाये और घोड़ी राजा के लिए पूरी वफादार थीI कुछ दिनों के बाद इस घोड़ी ने एक बच्चे को जन्म दिया, बच्चा काना पैदा हुआ, पर शरीर हष्ट पुष्ट व सुडौल था।

बच्चा बड़ा हुआ, बच्चे ने मां से पूछा: मां मैं बहुत बलवान हूँ, पर काना हूँ…. यह कैसे हो गया, इस पर घोड़ी बोली: “बेटा जब में गर्भवती थी, तू पेट में था तब राजा ने मेरे ऊपर सवारी करते समय मुझे एक कोड़ा मार दिया, जिसके कारण तू काना हो गया।

यह बात सुनकर बच्चे को राजा पर गुस्सा आया और मां से बोला: “मां मैं इसका बदला लूंगा।”

मां ने कहा “राजा ने हमारा पालन-पोषण किया है, तू जो स्वस्थ है….सुन्दर है, उसी के पोषण से तो है, यदि राजा को एक बार गुस्सा आ गया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उसे क्षति पहुचाये”, पर उस बच्चे के समझ में कुछ नहीं आया, उसने मन ही मन राजा से बदला लेने की सोच ली।

एक दिन यह मौका घोड़े को मिल गया राजा उसे युद्व पर ले गया । युद्व लड़ते-लड़ते राजा एक जगह घायल हो गया, घोड़ा उसे तुरन्त उठाकर वापस महल ले आया।

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

इस पर घोड़े को ताज्जुब हुआ और मां से पूछा: “मां आज राजा से बदला लेने का अच्छा मौका था, पर युद्व के मैदान में बदला लेने का ख्याल ही नहीं आया और न ही ले पाया, मन ने गवारा नहीं किया….इस पर घोडी हंस कर बोली: बेटा तेरे खून में और तेरे संस्कार में धोखा है ही नहीं, तू जानकर तो धोखा दे ही नहीं सकता है।”

“तुझ से नमक हरामी हो नहीं सकती, क्योंकि तेरी नस्ल में तेरी मां का ही तो अंश है।”

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

यह सत्य है कि जैसे हमारे संस्कार होते है, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है, हमारे पारिवारिक-संस्कार अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ जाते हैं, माता-पिता जिस संस्कार के होते हैं, उनके बच्चे भी उसी संस्कारों को लेकर पैदा होते हैं।

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

*हमारे कर्म ही ‘संस्‍कार’ बनते हैं और संस्कार ही प्रारब्धों का रूप लेते हैं! यदि हम कर्मों को सही व बेहतर दिशा दे दें तो संस्कार अच्छे बनेगें और संस्कार अच्छे बनेंगे तो जो प्रारब्ध का फल बनेगा, वह मीठा व स्वादिष्ट होगा।

संस्कार क्या है

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आखिरी पड़ाव -1

आखिरी-पड़ाव

आखिरी पड़ाव  (akhiari-padaw)

कई बार लक्ष्य नजरों के सामने होते हुए भी हम लक्ष्य तक नही पहुँच पाते है! ऐसा क्यों?_

आखिरी पड़ाव (akhiari-padaw)

सुंदरबन इलाके में रहने वाले ग्रामीणों पर हर समय जंगली जानवरों का खतरा बना रहता था। खास तौर पर जो युवक घने जंगलों में लकड़ियाँ चुनने व शहद इकट्ठा करने जाते थे, उन पर कभी भी बाघ हमला कर सकते थे। यही वजह थी कि वे सब पेड़ों पर तेजी से चढ़ने-उतरने का प्रशिक्षण लिया करते थे।

प्रशिक्षण गाँव के ही एक बुजुर्ग दिया करते थे, जो अपने समय में इस कला के महारथी माने जाते थे। आदरपूर्वक सब उन्हें बाबा-बाबा कह कर पुकारा करते थे।

बाबा कुछ महीनों से युवाओं के एक समूह को पेड़ों पर तेजी से चढ़ने-उतरने की बारीकियाँ सिखा रहे थे और आज उनके प्रशिक्षण का आखिरी दिन था।

बाबा बोले, “आज आपके प्रशिक्षण का आखिरी दिन है, मैं चाहता हूँ, आप सब एक-एक कर इस चिकने और लम्बे पेड़ पर तेजी से चढ़ कर और उतर कर दिखाएँ।” सभी युवक अपना कौशल दिखाने के लिए तैयार हो गए।

पहले युवक ने तेजी से पेड़ पर चढ़ना शुरू किया और देखते ही देखते पेड़ की सबसे ऊँची शाखा पर पहुँच गया। फिर उसने उतरना शुरू किया। जब वह लगभग आधा उतर आया तो बाबा बोले, “सावधान, ज़रा संभल कर। आराम से उतरो, क़ोइ जल्दबाजी नहीं….।” युवक सावधानी पूर्वक नीचे उतर आया।

इसी तरह बाकी युवक भी पेड़ पर चढ़े और उतरे और हर बार बाबा आधा उतरने के बाद उन्हें सावधान रहने को कहते।

यह बात युवकों को कुछ अजीब लगी, और उन्ही में से एक ने पुछा, “बाबा, हमें आपकी एक बात समझ में नहीं आई, पेड़ का सबसे कठिन हिस्सा तो एकदम ऊपर वाला था, जहाँ पे चढ़ना और उतरना दोनों ही बहुत कठिन था, आपने तब हमें सावधान होने के लिए नहीं कहा, लेकिन जब हम पेड़ का आधा हिस्सा उतर आये और बाकी हिस्सा उतरना बिलकुल आसान था तभी आपने हर बार हमें सावधान होने के निर्देश क्यों दिये?”

बाबा मुस्कराये, और फिर बोले, “बेटे ! यह तो हम सब जानते हैं कि ऊपर का हिस्सा सबसे कठिन होता है, इसलिए वहाँ पर हम सब खुद ही सतर्क हो जाते हैं और पूरी सावधानी बरतते हैं। लेकिन जब हम अपने लक्ष्य के समीप आखिरी पड़ाव (akhiari-padaw) पहुँचने लगते हैं तो वह हमें बहुत ही सरल लगने लगता है….

हम जोश में होते हैं और अति आत्मविश्वास से भर जाते हैं। इसी समय सबसे अधिक गलती होने की सम्भावना होती है। यही कारण है कि मैंने तुम लोगों को आधा पेड़ उतर आने के पश्चात सावधान किया ताकि तुम अपनी मंजिल के निकट आकर आखिरी पड़ाव (akhiari-padaw)  पर कोई गलती न कर बैठो!“

सभी युवक बाबा की बात सुनकर शांत हो गए, आज उन्हें एक बहुत बड़ी सीख मिल चुकी थी।

मित्रों, सफल होने के लिए लक्ष्य निर्धारित करना बहुत ही जरूरी है, और यह भी बहुत ज़रूरी है कि जब हम अपने लक्ष्य को हासिल करने के करीब पहुँच जाएँ, मंजिल को सामने पायें, तो उस समय भी पूरे धैर्य के साथ अपना कदम आगे बढ़ाएँ।

कई बार हम लक्ष्य के निकट पहुँच कर अपना धैर्य खो देते हैं और गलतियाँ कर बैठते हैं, जिस कारण हम अपने लक्ष्य से चूक जाते हैं। इसलिए लक्ष्य के आखिरी पड़ाव पर पहुँच कर भी किसी तरह की असावधानी नहीं बरतनी चाहिए और लक्ष्य प्राप्त कर के ही दम ले।

प्रेरक : अधिकतर लोग सफलता के इसी घडी में अपने कार्य को संभाल नहीं पता है और असफलता के दल दल में फस जाते हैं।

आखिरी पड़ाव

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गेहूं है की तोंद

गेहूं है की तोंद

गेहूं है की तोंद

Side Effects Of Wheet

गेहूं की विशेषता।

*गेंहू मूलतः भारत की फसल नहीं है अमेरिका के एक हृदय रोग विशेषज्ञ हैं डॉ विलियम डेविस…उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी 2011 में जिसका नाम था “Wheat belly गेंहू की तोंद”…

यह पुस्तक अब फूड हेबिट पर लिखी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक बन गई है…पूरे अमेरिका में इन दिनों गेंहू को त्यागने का अभियान चल रहा है…कल यह अभियान यूरोप होते हुये भारत भी आएगा*

यह पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं और कोई फ़्री में पढ़ना चाहे तो भी मिल सकती है, चौंकाने वाली बात यह है कि डॉ डेविस का कहना है कि अमेरिका सहित पूरी दुनिया को अगर मोटापे, डायबिटिज और हृदय रोगों से स्थाई मुक्ति चाहिए तो उन्हें पुराने भारतीयों की तरह ज्वार, बाजरा, रागी, चना, मक्का मटर, कोदरा, जो, सावां, कांगनी ही खाना चाहिये गेंहू नहीं जबकि यहां भारत का हाल यह है कि 1980 के बाद से लगातार सुबह शाम गेंहू खा खाकर हम महज 40 वर्षों में मोटापे और डायबिटिज के मामले में दुनिया की राजधानी बन चुके हैं…।

गेंहू मूलतः भारत की फसल नहीं है. यह मध्य एशिया और अमेरिका की फसल मानी जाती है और आक्रांताओ के भारत आने के साथ यह अनाज भारत आया था…उससे पहले भारत में जौ की रोटी बहुत लोकप्रिय थी और मौसम अनुसार मक्का, बाजरा, ज्वार आदि…भारतीयों के मांगलिक कार्यों में भी जौ अथवा चावल (अक्षत) ही चढाए जाते रहे हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इन्हीं दोनों अनाजों का अधिकतम जगहों पर उल्लेख है..हमारे पिताजी,दादाजी, कहते थे कि 1975-80 तक भी आम भारतीय घरों में *बेजड़ (मिक्स अनाज, Multigrain) की रोटी का प्रचलन था जो धीरे धीरे खतम हो गया।

गेहूं है की तोंद

1980 के पहले आम तौर पर घरों में मेहमान आने या दामाद के आने पर ही गेंहू ( की रोटी बनती थी और उस पर घी लगाया जाता था, अन्यथा बेजड़ की ही रोटी बनती थी ……आज घरवाले उसी बेजड़ की रोटी को चोखी ढाणी में खाकर हजारों रुपए खर्च कर देते हैं….।

हम अक्सर अपने ही परिवारों में बुजुर्गों के लम्बी दूरी पैदल चल सकने, तैरने, दौड़ने, सुदीर्घ जीने, स्वस्थ रहने के किस्से सुनते हैं। वे सब मोटा अनाज ही खाते थे गेंहू नहीं।एक पीढ़ी पहले किसी का मोटा होना आश्चर्य की बात होती थी, आज 77 प्रतिशत भारतीय ओवरवेट हैं और यह तब है जब इतने ही प्रतिशत भारतीय कुपोषित भी हैं…फ़िर भी 30 पार का हर दूसरा भारतीय अपनी तौंद घटाना चाहता है….।

गेहूं है की तोंद

गेंहू की लोच ही उसे आधुनिक भारत में लोकप्रिय बनाये हुये है क्योंकि इसकी रोटी कम समय और कम आग में आसानी से बन जाती है…पर यह अनाज उतनी आसानी से पचता नहीं है…समय आ गया है कि भारतीयों को अपनी रसोई में 80-90 प्रतिशत अनाज जौ, ज्वार, बाजरे, रागी, मटर, चना, रामदाना आदि को रखना चाहिये और 10-20 प्रतिशत गेंहू को…

हाल ही कोरोना ने जिन एक लाख लोगों को भारत में लीला है उनमें से डायबिटिज वाले लोगों का प्रतिशत 70 के करीब है…वाकई गेहूं त्यागना ही पड़ेगा…. अन्त में एक बात और भारत के फिटनेस आइकन 54 वर्षीय टॉल डार्क हेंडसम (TDH) मिलिंद सोमन गेंहू नहीं खाते हैं….

मात्र बीते 40 बरसों में यह हाल हो गया है तो अब भी नहीं चेतोगे फ़िर अगली पीढ़ी के बच्चे डायबिटिज लेकर ही पैदा होंगे…शेष- समझदार को इशारा ही काफी है।

डायबिटीज से निजात पाने के लिए आप मल्टीग्रैन खा सकते हैं जिसमे जौ, चना , ज्वार, बाजरा , अलसी, सोयाबीन, मक्का, रागी, गेहूं कम मात्रा में डालकर खा सकते है जिससे आप बिविन्न प्रकार के विटामिन और खनिज प्राप्त हो सकता है ।  स्वस्थ्य रहने के लिए हमें पुराने मोटा अनाज को ही अपनाना पड़ेगा ।

गेहूं है की तोंद

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श्री हनुमान चलीसा 1

श्री हनुमान चलीसा

श्री हनुमान चलीसा

|| श्री हनुमान चालीसा ||

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि । 
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ।

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।

॥ चौपाई  श्री हनुमान चलीसा ॥

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥

रामदूत अतुलित बलधामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे।
काँधे मूँज जनेऊ साजे॥

शंकर सुवन केसरी नंदन।
तेज प्रताप महा जग वंदन॥

विद्यावान गुणी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥

लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना।
लंकेश्वर भए सब जग जाना॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं॥

दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना॥

आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक ते काँपै॥

भूत पिशाच निकट नहीं आवै।
महावीर जब नाम सुनावै॥

नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥

संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥

सब पर राम तपस्वी राजा।
तिनके काज सकल तुम साजा॥

और मनोरथ जो कोई लावै।
सोई अमित जीवन फल पावै॥

चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥

साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥

अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥

राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥

तुम्हरे भजन राम को पावै।
जन्म जन्म के दुख बिसरावै॥

अंतकाल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई॥

और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्व सुख करई॥

संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरु देव की नाईं॥

जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥

॥ दोहा श्री हनुमान चलीसा ॥
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप॥

|| सियाराम चंद्र की जय ||

|| पवन सूत हनुमान की जय ||

|| उमापति महादेव की जय ||

|| बोलो रे भाई सब संतन की जय ||

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श्री हनुमान चलीसा

श्री हनुमान चलीसा

 

 

 

 

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

आधुनिक सभ्यता के मानदंड भी बड़े अदभुत है दिन-रात श्रम करके आप अर्थ उपार्जन करते हैं | संपन्नता आते ही सुख सुविधा के लिए अनेक साधन और यंत्र जताते हैं। यह मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम है।

अपना इन यंत्रों पर आपकी मिल्कियत से दूसरों पर आपका रोव  बढ़ता है,  मिल्कियत के नाम पर आप अपने गुलाम बनकर रह जाते हैं  |  यंत्रों पर आपकी निर्भरता जियो जियो बढ़ती जाती है, त्यों त्यों आप भी यंत्र बन जाते हैं ।  आपके रिश्ते संबंध व्यवहार से मानवता लुप्त हो जाती है और यांत्रिकता बढ़ती जाती है ।

सुविधाएं कम और मुसीबत अधिक बढ़ती जाती है मुसीबतें कम करने के नाम पर आसानी से कोई भी आपको ब्लैकमेल कर सकता है।  आप तो यंत्र बन ही गए हैं इसका अतः आपका आत्म गौरव स्वावलंबन आत्मविश्वास भी मिट चुका होता है।

आप केवल समझौता कर सकते हैं ब्लैकमेलर की तरह हरसंभव मांगे मानते रहना ही आपकी नियति बन जाता है,  आप कोई भी यंत्र इसलिए खरीदते हैं ताकि आपकी सुविधाओं में वृद्धि हो,  यंत्र आपका है यदि आपके यंत्र पर आपका ही नियंत्रण न हो तो कितनी शर्म की बात है परंतु होता प्रतिदिन यही है बिगड़े हुए यंत्रों को सुधारने वाले उनके निश्चित मैकेनिक्स इंजीनियर होते हैं। यंत्र सुधारने की उनकी अपनी शर्तें होती है नखरे होते हैं पारिश्रमिक होता है।

यह शरीर आपका है यह चाहे जब रिजेक्ट कर देने योग्य यंत्र नहीं है।  यंत्र को सुख-दुख नहीं होता,  शरीर को सुख-दुख होता है,  शरीर को यंत्र मत बनाइए।

अपने शरीर का नियंत्रण मेकैनिज्म यदि आप दूसरों को सौंपेंगे तो आपका  स्वामित्य,  स्वतंत्रता गौरव सब नष्ट हो जाएगा।

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

आप भी यंत्र बंद कर रह जाएंगे यंत्र को कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार नाचा सकता है और आप भी नाचेंगे यही है गैर जिम्मेदाराना हरकत

अपना काम खुद ही करे।

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Crisis and Courage संकट और साहस

Crisis and Courage संकट और साहस

Crisis and Courage संकट और साहस

बाल गंगाधर तिलक अपने सहपाठियों के साथ छात्रावास की छत पर बैठकर वार्तालाप कर रहे थे।  वार्तालाप की इस कड़ी में एक विद्यार्थी ने कल्पना करते हुए कहा कि अगर नीचे हमारे साथियों पर पर अगर कोई संकट आ जाए तो उनकी सुरक्षा के लिए शीघ्रता से हम नीचे कैसे उतर पाएंगे ? अथवा कौन,  कैसे जल्दी पहुंचने का प्रयास करेगा?

पहला लड़का बोला मैं  सीढ़ियों  से दौड़ता हुआ निकल जाऊंगा।   दूसरे ने कहा –  मैं रस्सी के द्वारा दीवान के सहारे नीचे पहुंचूंगा . सब अपनी अपनी सोच से एक दूसरे से अवगत करा रहे थे,  कि एक ने पूछा  ” तिलक तुम ऐसे संकट के घड़ी में क्या करोगे “?

बाल गंगाधर तिलक ने अपनी धोती कसी बड़ी सावधानी और कुशलता से नीचे चलांग लगा दी।  कूदते समय यह वाक्य बोला  “मैं  ऐसा करूंगा ”

सभी साथी चिल्ला पड़े,  अरे यह क्या ????  सब एक साथ देखने के लिए नीचे दौड़े की कहीं तिलक को चोट तो नहीं आई ।

जब वे लोग सीढ़ीओ में पहुंचे तो उन्हें देखकर प्रशन्नता हुई  की बाल गंगाधर तिलक स्वयं  सकुशल ऊपर आ रहे थे।

यह है Crisis and Courage संकट और साहस का सच्चा उदहारण।

Crisis and Courage संकट और साहस

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सच्चा धार्मिक कौन ?

सच्चा धार्मिक कौन

सचमुच में सच्चा धार्मिक कौन ? है इस कहानी के मार्फ़त पता चलता है , एक गांव में मेला लगा हुआ था। मेला स्थल पर एक छोटा सा कुआ था, जिसमें एक आदमी भूल बस गिर गया था। वह चिल्लाने लगा मुझे बचाओ मुझे बचाओ लेकिन मेले में बड़ा शोरगुल था कौन सुन उसकी आवाज लोग जल्दी बाजी में थे।

इतने में एक क्रांतिकारी युवक कुआं के पास आकर बैठा .उसे अंदर से आदमी की आवाज सुनाई दी,  वह बोला चुप रह,  यह बिना दीवार के कुआं किसने बनाया!  उसे मेला अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही करूंगा।  घाट होता तो तू क्यों गिरता,  यह जुल्म है मैं सबको हिला कर रख दूंगा।  यह कहते हुए वह आगे चल दिया।

इतने में एक संन्यासी आया और कुआं पर आकर बैठ गया।  कुएं के अंदर से आदमी चिल्लाया मुझे निकालो, मुझे निकालो, सन्यासी बोला भाई पिछले जन्म में तुमने कुछ कुकर्म में किए होंगे,  जिनका फल तुम भोग रहे हो . अपना अपना फल सभी को भोगना पड़ता है, इसमें कुछ भी नहीं किया जा सकता . उस आदमी ने कहा यह तुम मुझे बाद में समझा देना पहले कुएं से बाहर तो निकालो।  सन्यासी बोला देखो भाई मैं तो कर्म त्याग कर चुका हूं,  गांव के लोगों से कहूंगा वह तुम्हारी कुछ मदद कर दे।  और वह चल दिया।

इतने में एक थका हारा किसान आया सोचा पानी  खींचकर तृष्णा बुझा लूंगा,  इतने में कुएं के अंदर से आवाज आई,  मुझे निकालो,  किसान ने अंदर झाक कर  देखा एक आदमी गिर पड़ा है,  किसान बोला  भाई रस्सी तो है पर पतली है टूट जाएगी,  देखो कुछ उपाय करता हूं, उसने अपनी धोती खोली और रस्सी बांध दी,  उसकी सहायता से वह आदमी बाहर आ गया।

उस आदमी ने किसान  के पैर पकड़ लिए और कहा भाई तू ही सच्चा धार्मिक है,  सच्चा समाज सुधारक है,  उन लोगों ने तो मेरी सुनी ही नहीं।  किसान बोला भैया मै धर्म सुधर ,  समाज सुधार तो कुछ नहीं जानता ही नहीं हूं पर यह जानता हूं कि जो दूसरों की फिक्र करता है, वही धनवान होता है।  सभी में राम जी रहते हैं जैसी अपनी बच्चों की फिक्र वैसा ही दूसरो की फिक्र यही सच्ची दया है, धर्म है

सच्चा धार्मिक कौन

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सेवा भारती समिति राजस्थान द्वारा 13वाँ सामूहिक विवाह सम्मेलन

सेवा भारती समिति

सेवा भारती समिति राजस्थान द्वारा 13वाँ सामूहिक विवाह सम्मेलन

जयपुर। जानकी नवमी पर जयपुर शहर में सेवा भारती समिति राजस्थान के तत्वावधान में सेवा भारती समिति राजस्थान द्वारा 13वाँ सामूहिक विवाह सम्मेलन में अनूठा एवं भव्य सामूहिक सर्वजातीय विवाह समारोह आयोजित किया गया। समारोह में एक ही मण्डप के नीचे अलग-अलग जाति के दूल्हा-दूल्हन परिणय सूत्र में बंधे।

सेवा भारती समिति

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45 जोड़ों का विवाह भारतीय संस्कृति के अनुरूप विधि विधान से सम्पन्न हुआ। इस विवाह समारोह में 7 अन्तरजातीय सहित कुल 15 जातियों के जोड़े विवाह बंधन में बंधे। इसमें एक वर द्वारा विधवा से शादी की जो कि समाज के लिए एक उदाहरण भी था।

सर्वजातीय सामूहिक विवाह समारोह के माध्यम से सामाजिक समरसता, सादगी, समर्पण का दृश्य देखने को मिला । जहाँ आधुनिकता के चलते लोग लाखों रूपये खर्च करते है वहीं इस विवाह से सादगी का एक उदाहरण मिला।

सामूहिक निकासी, एक साथ तोरण

सेवा भारती समिति

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एक साथ 45 घोड़ियों पर दूल्हों की निकासी अग्रवाल केटर्स, विधाधर नगर से प्रारम्भ होकर विवाह स्थल पहुंची, द्वार पर दूल्हों का स्वागत महिला कार्यकर्ताओं द्वारा पुष्प वर्षा से किया गया। इसके बाद एक साथ सभी ने तोरण मारने की परम्परा का निर्वहन किया।

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इस दौरान बड़ी संख्या में वर वधु पक्ष लोगों के साथ समाज के अन्य गणमान्य नागरिक भी मोजूद रहे। तोरण के बाद सभी दूल्हा दूल्हन मंच पर पहुंचे जहां दूल्हा-दूल्हन की वरमाला संस्कार सम्पन्न कराया गया।

राम जानकी विवाह समारोह में पहुंचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय प्रचारक निम्बाराम ने मंचासिन संतों को नमन करते हुए नवविवाहित जोड़ों को शुभकामना संदेश दिया।

उन्होंने कहा भगवान राम के जीवन से प्रेरणा लेते हुए पूर्वजों की परम्परा ओैर संस्कारों को लेकर आदर्श हिन्दू परिवार की स्थापना करने का संकल्प ले और आगे बढ़े।

इस दौरान उन्होंने सेवा भारती के कार्य की सराहना करते हुए कहा सेवा भारती कोई अलग से संस्था नहीं है। यह सर्व समाज का एक संगठन है जो अभावग्रस्त क्षेत्र जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार और रोजगार, स्वावलम्बन जैसे प्रकल्प संचालित करती है।

उन्होंने कहा आज का यह कार्यक्रम कई विषयों को लेकर एक संदेश सब तक पहुंचाने वाला है हमे पर्यावरण, सामाजिक समरसता, नागरिक शिष्टाचार के तहत अनुशासन का ध्यान रखना होगा।

समरसता का लिया संकल्प

45 जोड़ो के लिए 45 वेदियाँ बनाई गई। जहां दूल्हा-दूल्हन का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न करवाया गया। हर वेदी पर 2-2 पण्डितों ने मंत्रोच्चार के साथ विधि विधान के साथ मंत्रोच्चार के साथ विवाह संस्कार सम्पन्न कराया । फेरों के बाद अशीर्वाद दिया गया। जिसमें वर-वधुओं ने संकल्प लिया वो सामाजिक समरसता के लिए काम करेंगे।

संतो का मिला आशीर्वाद –

श्री खोजी द्वाराचार्य श्री श्री 1008 श्री रामरिज्याल दास महाराज (विवेणी धाम), श्री महापीठाधीश्वर काठियापरिवाराचार्य अनन्त श्री विभूषित स्वामी श्री रामरतनदेवाचार्य श्री महाराज, डाकोर धाम, गुजरात, वेदाती हरिशकर दास महाराज, सियाराम दास महाराज श्री धन्ना पाठीधीश्वर, श्री श्री 1008 बजरंग देवाचार्य महाराज श्रीराम धाम आश्रम, तामड़िया (निवाई), पूज्य संत श्री मुरली मनोहर अकिचन महाराज जयपुर नव दम्पत्तियों को मंगल आशीष प्रदान किया।

वर-वधुओं को दिया उपहार –

सेवा भारती समिति राजस्थान की ओर से प्रत्येक वर वधु को उपहार दिये गये।

उपहारों में पलंग, गद्दा, तकिये, अलमारी, सिलाई मशीन, कूलर, प्रेस, बर्तन, मिक्सी, बेडशीट, कंगन, पायल, मंगलसूत्र, नाक की लॉग, बिछिया, सुहाग का सामान, वधु के लिए साड़ियां, वर के लिए पेंट-शर्ट आदि सामान दिया गया।

13 वर्ष में सेवा भारती द्वारा करवाये गये विवाह

सेवा भारती समिति

सेवा भारती समिति

– इस विवाह समारोह की शुरुआत भवानी मण्डी से हुई । सेवा भारती के आज के सम्मेलन को मिलाकर 22 जिलों के 33 स्थानों पर 2420 जोड़ों का विवाह सम्पन्न करवाया जा चुका है। इस बार सेवा भारती का यह 13 वां श्री राम जानकी विवाह सम्मेलन था।

इन जोड़ों की आगामी कुछ दिनों में पण्डित द्वारा मुर्हत निकालकर हर वर्ष की तरह पग फेरे की रस्म करवायी जाएगी जहां उन्हें उपहार देकर विदा किया जाएगा।

इस विवाह द्वारा समाज के लिए कई संदेश –

सामूहिक विवाह के इस आयोजन से समाज में लोगों को कई प्रकार के संदेश दिये गये। समाज में वंचित निर्धन वर्ग के लोगों का विवाह करवाया गया। अंतर्जातीय विवाह से सामाजिक परिर्वतन की शुरूआत भी की गयी।

सभी समुदाय, सभी जातियों के लोगों ने एक साथ भोजन किया। कहीं कोई छुआ छूत नहीं ना कोई ऊच नीच का भाव दिखाई दिया।

सर्वजातीय सामूहिक विवाह के माध्यम से एक नई क्रांति का सूत्रपात हुआ है। इस पूरे कार्यक्रम में महिला कार्यकर्ताओं ने तन-मन-धन से सहयोग करके मातृशक्ति की प्रबल सामर्थ्य का उदाहरण प्रस्तुत किया।

वही समारोह में सहयोग देने से सम्पन्न लोगों में समर्पण भाव जागा और उन्होंने सादगी का संदेश भी दिया ।

प्रचार मंत्री रितु चतुर्वेदी ने बताया समाज के कई गणमान्य व्यक्तियों, संघ प्रचारकों ने विवाह समारोह में उपस्थित हो वर-वधू को मंगल जीवन का आशीर्वाद दिया।

समारोह के विधिवत सम्पन्न कराने में नागरमल अग्रवाल, गिरधारी लाल शर्मा, नवल बगड़िया, हरि कृष्ण गोयल, कैलाश चंद शर्मा, ओमप्रकाश भारती, हनुमान सिंह भाटी का मार्गदर्शन एवं विशेष सहयोग प्राप्त हुआ।

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कारसेवक नारायण उपाध्याय 13

कारसेवक नारायण उपाध्याय

कारसेवक नारायण उपाध्याय

कारसेवक नारायण उपाध्याय कारसेवक श्रंखला- 13

सुनिश्चित हो कि ‘वनवासी’ सुरक्षित घर लौटे… कारसेवक नारायण उपाध्याय

यह वो दौर था जब, मुलायम सरकार थी। उसने दम्भ पूर्वक घोषणा की थी कि, ”अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा।” हम जब नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन पहुंचे तब सोहन सिंह जी मिले, उन्होंने कहा कि नारायण , ”देखो तुम्हारे साथ क्षेत्र के भोले भाले वनवासी हैं, तुम्हें उनका पूरा ध्यान रखना है, यह सुनिश्चित करना है कि यह सभी सुरक्षित अपने घरों को लौटे।

तुम्हें एक कार्य करना होगा पूरे रास्ते चैकिंग और पूछताछ होगी। यदि पुलिस वालों को संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तो तुम्हें गिरफ्तार कर लेंगे। तुम्हें इस बात का ध्यान रखना है, जहां कहीं पर भी एक भी वनवासी बन्धु को गिरफ्तार कर लिया जाए तब आगे नहीं बढ़ना है, वहीं गिरफ्तारी दे देनी है लेकिन अपने साथी को छोड़ना नहीं।”

याद है मुझे वो दिन जब 1990 में मुझे जिला कार सेवा संयोजक की जिम्मेदारी मिली थी। मैं साढ़े चार सौ से अधिक कारसेवक साथियों जिनमें वनवासी बंधु भी शामिल थे, उनके साथ अयोध्या के लिए रवाना हुआ था। नए दायित्व के साथ अयोध्या पहुंचने की एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई थी मुझे। मेरे पास नई नई जिम्मेदारी आयी थी

कारसेवक नारायण उपाध्याय

कारसेवक नारायण उपाध्याय

इसीलिए सोहन सिंह जी ने मुझे बहुत ही गंभीरता के साथ समझाते हुए कहा था, उनकी इस सीख के साथ हम दिल्ली से आगे की ओर बढ़ चले। तभी मैंने देखा कि अलीगढ़ के समीप आते ही पुलिस की पूछताछ तेज हो गई। कुछ कारसेवक संतोषप्रद उतर नहीं दे पाए और वे गिरफ्तार कर लिए गए। इसके बाद हम सभी को गिरफ्तारी देनी ही थी।

इसके बाद सभी कारसेवकों ने जमकर नारे लगाना शुरू कर दिए ” राम लला हम आएंगे….।” यहां से हमें अलीगढ़ जेल भेजा गया। जेल में नौ दिन तक एक कैदी के रूप में रहे। पहले दो दिनों तक हमें काली दाल और मोटी रोटियां ही खाने को मिली। लेकिन ये राम की ही कृपा थी जब वहां भी हमें रामभक्त मिल गए, जिन्होंने अच्छे भोजन की व्यवस्था कर दी थी। जेल से छूटने के बाद हम सभी बांसवाड़ा पहुंचे।

मुझे 1992 में हुई कारसेवा में जाने का भी अवसर मिला। उस समय मैं राजसमंद में वकालत कर रहा था। यहां से लगभग 30 कारसेवकों का एक जत्था 2 दिसंबर 1992 को रवाना होकर 4 दिसंबर को अयोध्या पहुंचा था। उस समय हमारे जत्थे का नेतृत्व कांकरोली के दिनेश जी पालीवाल कर रहे थे।

6 दिसंबर की सुबह रामलला के स्थान के पास वाले मैदान पर चल रही सभा में भीड़ जुटने लगी थी। सभा में स्व. अशोक सिंघल, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, साध्वी ऋतम्भरा,साध्वी उमा भारती,आचार्य धर्मेंद्र आदि मंच पर थे। सुबह लगभग साढ़े दस बजे का समय था जब, आडवाणी जी भाषण कर रहे थे। तभी अचानक से हौ हल्ला मच गया। चारों तरफ भगदड़ मची हुई थी। आडवाणी जी मंच से भीड़ को अनियंत्रित होने से रोक रहे थे लेकिन भीड़ बेकाबू थी, किसी ने उनकी नहीं सुनी।

मंच पर साध्वी ऋतम्भरा और उमाभारती ने भी मोर्चा सम्हाला। मैं इस दिन और इस क्षण को कभी नहीं भूल सकता। शायद उसी की परिणिति हैं, जो आज अयोध्या में भव्य राम मंदिर बन पाया है। आज श्री राम मंदिर बनाने के उन सभी के सपने पुरे हुए |

वो अद्भुत दृश्य था जिसका मैं साक्षी हूं। मैंने देखा कि,कारसेवकों के हाथों में मूर्तियां थी जिसे वे बाहर लेकर आ रहे थे। जिसे अस्थाई चबूतरे पर विराजित किया गया। आज प्रभु श्री राम अपने भव्य मंदिर में विराजमान हो गए हैं। जीवन में इससे सुखद क्षण मेरे लिए क्या हो सकता है।

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कारसेवक नारायण उपाध्याय

कारसेवक नारायण उपाध्याय

समरसता के पोषक श्रीराम-1

समरसता के पोषक श्रीराम

समरसता के पोषक श्रीराम का “निज सिद्धान्त”

गीता में भगवान् स्वयं अपने अवतार धारण के तीन कारण बताते हैं; सज्जनों की रक्षा, दुर्जनों का विनाश और धर्म की संस्थापना। समरसता के पोषक श्रीराम  का अवतार भी असुरों के संहार और धर्म की स्थापना के लिए हुआ। जिस प्रकार सज्जनों की रक्षा के लिए दुर्जनों का विनाश अनिवार्य है उसी प्रकार धर्म की संस्थापना के धर्म का आचरण अनिवार्य है।

समरसता के पोषक श्रीराम इसीलिए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं कि उन्होंने अपने शील और आचरण से धर्म की मर्यादा स्थापित की। वे सूत भर भी उस मर्यादा से विचलित नहीं हुए। उन्होंने व्यक्ति धर्म और समाज धर्म के मानदंड स्थापित किया। वैयक्तिक धर्म के रूप में उन्होंने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श मित्र, आदर्श शिष्य और आदर्श राजा की मर्यादाओं का पालन किया। सामाजिक धर्म के रूप में राम का मूल आधार सामाजिक समरसता था।

सामाजिक समरसता का अर्थ है अपने वर्ग, जाति और समुदाय से भिन्न लोगों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार। “अन्य” के प्रति प्रेम और आत्मीयता पूर्ण व्यवहार ही सामाजिक समरसता है। राम राजपुत्र थे, उच्च वर्ण में जन्मे थे, किन्तु समाज में हीन और निम्न कहे जाने वाले समुदाय के लोग उनके सर्वाधिक प्रिय पात्र रहे।

राम की इस विलक्षणता को बताते हुए तुलसीदास विनयपत्रिका में कहते हैं, हे राम! आपकी यही तो बड़ाई है कि आप गण्य–मान्यों, धनिकों की अपेक्षा गरीबों को अधिक आदर देते हो।
“रघुवर रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीब पर,
करत कृपा अधिकाई।।”

राम इसलिए सबसे बड़े हैं कि वे सर्वाधिक चिंता छोटे और निचले स्तर के लोगों की करते हैं। वे सबल की अपेक्षा निर्बल का, बड़े की अपेक्षा छोटे का, ऊंँचे की अपेक्षा नीचे का, अमीर की अपेक्षा गरीब का पक्ष लेते हैं।

सुग्रीव भले ही बहुत नैतिक व्यक्ति नहीं था। बाली की तरह वह भी आचरणगत दुर्बलताओं से ग्रस्त था। पर बाली के मुकाबले दुर्बल एवं बाली का सताया हुआ प्राणी था। इसी कारण राम सुग्रीव के साथ खड़े होते हैं। अहल्या शापित और उपेक्षित स्त्री थी। सामाजिक उपेक्षाओं और तिरस्कारों के कारण वह पथरा गई थी। राम उसकी भी सुध लेते हैं।

विभीषण जैसा सदाचारी व्यक्ति अपने ही कुल के दुराचारियों के मध्य ऐसे जीवनयापन कर रहा था, जैसे दांतों के बीच में जीभ रहती हो। हनुमान से प्रथम भेंट पर ही वह अपना दुखड़ा रो देता है। “सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥” राम उसको भी अपनी शरण में ले लेते हैं।

यह भरोसा ही संकट में पड़े हुए कोटि–कोटि जन को सम्बल देता है और उनके मुंँह से सबसे पहले यही प्रार्थना निकलती है, “दीन दयाल विरदु संभारी। हरहुंँ नाथ मम संकट भारी।।

अध्यात्म रामायण के शबरी प्रसंग में शबरी जब कहती है कि, हे राम! आपका दर्शन तो मेरे गुरुदेव को भी नहीं हुआ, मेरी तो औकात ही क्या है? मैं तो नीच जाति में उत्पन्न हुई एक गंँवार स्त्री हूं; तो प्रत्युत्तर में राम कहते हैं कि “मेरी भक्ति में न पुरुष–स्त्री का लिंगभेद कारण है, न जाति, न नाम और न आश्रम। भक्ति की भावना ही मेरी भक्ति में कारण है।”

“पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादय:।
न कारणं मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम्।।”

(अरण्य काण्ड/दशम सर्ग/२०)
राम की यह ऐतिहासिक घोषणा भक्ति के क्षेत्र में सामाजिक समरसता का उज्ज्वल प्रमाण है।

तुलसीदास भी यही बात कहते हैं।
“कह रघुपति सुनु भामिनी बाता। मानऊंँ एक भगति कर नाता।। जाति पांँति कुल धर्म बडाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।….”
राम की भेदभाव रहित भावना का रोमांचक वर्णन तुलसीदास मानस में निषादराज से भेंट के प्रसंग में करते हैं।

एक चक्रवर्ती सम्राट और एक महान् ऋषि से एक अछूत केवट की भेंट का जो वर्णन अयोध्या कांड में मिलता हैं, वह हमारी आंँखें खोल देने वाला दृश्य है। निषाद तो इतना अस्पृश्य है कि उसकी छाया के छू जाने मात्र पर लोग पानी का छींटा लेते हैं। लोकव्यवहार में भी और शास्त्रों के अनुसार भी उसे सब नीच ही मानते हैं।

उस अछूत को दण्डवत करते देख भरत उसको उठा कर अपने हृदय से लगा लेते हैं, मानो अपने भाई लक्ष्मण से मिल रहे हों।
“लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥ तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥”…..
“करत दण्डवत देखि तेहि, भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भई, प्रेम न हृदय समाइ।।”

और जब इसी अछूत की वशिष्ठ ऋषि से भेंट होती है, तो यह छोटा सा मिलन-दृश्य एक युगान्तकारी घटना बन जाता है। सामने से वशिष्ठ ऋषि को आते देख निषाद प्रेम में भर उठता है। किन्तु लोक प्रचलित मर्यादा के बंँधा होने के कारण वह एक उचित दूरी रखते हुए, दूर से ही अपना नाम पुकार कर दण्डवत प्रणाम करता है। महर्षि वशिष्ठ सारी लोकरूढ़ियों को ध्वस्त करते हुए नीची जाति में जन्मे इस रामसखा को स्वयं आगे बढ़कर गले से लगा लेते हैं।

“प्रेम पुलक केवट कहि नामू। कीन्ह दूर तें दंड प्रनामू।। राम सखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।”
वशिष्ठ ने केवट को गले लगा कर धरती पर पसरे हुए प्रेम को मानो समेट लिया। “जनु महि लुठत सनेह समेटा।” की प्रतिध्वनि बहुत दूर तक जाती है।

कितनी सदियों से धरती पर आपसी प्रेम दूर हुआ जा रहा था, अछूतों के प्रति सवर्णों का स्नेह धरती पर लुढ़के हुए स्नेह (मक्खन) की भांँति बिखरा जा रहा था। ऋषिवर ने उसे अपनी बाहों में समेट लिया।

शूद्र वर्ण या आज की शब्दावली में दलित कहे जाने वाले वर्ग के प्रति राम का क्या दृष्टिकोण है, यह जानने के लिए आवश्यक है कि हम राम के “निज सिद्धान्त” को जाने। मानस के उत्तरकांड में श्रीराम “निज सिद्धांत” की घोषणा करते हैं। बहुत स्पष्ट शब्दों में की गई इस घोषणा को जाने बिना ही कुछ जड़बुद्धि के लोग अपनी अनपढ़ता के चलते “ढोल गंवार सूद्र पशु नारी” के आगे न कुछ पढ़ना चाहते, न कुछ सुनना।

समुद्र के द्वारा प्रस्तुत इस उक्ति पर मूर्खों की तरह अटके रहते हैं। किंतु राम की स्वयं की क्या मान्यता है; उस ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती। राम बहुत स्पष्ट शब्दों में अपना सिद्धांत बताते हैं, बल्कि यह भी कहते हैं कि “निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरि”…. इसे बहुत ध्यान से सुनो!
यह हमारे युग का परम दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि कोई इसे सुनना नहीं चाहता।

वे कहते हैं कि, यों तो समस्त प्राणी मेरे ही द्वारा उत्पन्न किये गए हैं, सभी मुझे प्रिय हैं, अप्रिय कोई नहीं, परन्तु सभी प्राणियों में मनुष्य मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं।

आगे वे कहते हैं कि मनुष्यों में भी द्विज, द्विजों में भी वेदपाठी, वेदपाठियों में भी वेदधर्म का अनुसरण करने वाले, उनमें भी विरक्त, विरक्तों में भी ज्ञानी, ज्ञानियों में भी विज्ञानी -अध्यात्मज्ञानी-, मुझे परम प्रिय हैं। किंतु इन उत्तरोत्तर उत्कृष्ट से उत्कृष्ट व्यक्ति की अपेक्षा भी मुझे अपना दास ही अधिक प्रिय है।

“सब मम प्रिय सब मम उपजाए।
सब तें अधिक मनुज मोहि भाए।।

तिन्हं महँ द्विज तिन्हं महँ श्रुतिधारी।
तिन्हं महँ निगम धरम अनुसारी।।

तिन्हं महँ प्रिय विरक्त पुनि ग्यानी।
ग्यानिहुँ ते प्रिय अति विज्ञानी।।

तिन्हं ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा।
जेहि गति मोर न दूसर आसा।।

पुनि पुनि सत्य कहहुँ तोहि पाही।
मोहि सेवक सम प्रिय कोई नाही।।”

राम यहांँ इस बात को कितना जोर देकर कह रहें हैं यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए, यदि “पुनि पुनि सत्य कहहुँ तोहि पाही” पर हमारा ध्यान जाता हो। किसी बात को पुनि पुनि कहने की जरूरत तभी महसूस होती है जब उस बात को दृढतापूर्वक स्थापित करने की मंशा होती है।

राम की इस घोषणा में किसी तरह की अस्पष्टता या संशय न रहे, इस हेतु वे आगे फिर कहते हैं–
“भगतिवन्त अति नीचहुँ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।”

अर्थात् अत्यधिक नीच भी यदि कोई भक्त है तो वह मुझे प्राणों से भी प्रिय है।”
यहांँ जो बात हर–हाल में याद रखने की है वह यह कि इस घोषणा को राम ने “निज सिद्धान्त” कहा है। अपना स्वयं का सिद्धान्त। वेद, शास्त्र, लोकाचार जो कहता है, कहता होगा, उसमें मत-मतान्तर और विभेद रहते होंगे। राम की व्यक्तिगत मान्यता तो यही है।

समरसता के अग्रेसर राम जाति, वर्ण, लिंग आदि का भी कोई भेदभाव नहीं रखते। जिस “थर्ड जेंडर” पर ध्यान केंद्रित किये जाने को आज मानवाधिकारों की पहल और प्रेरणा बताया जाता है, तुलसी के राम अपनी भक्ति के लिये स्त्री-पुरुष के साथ इस वर्ग को भी याद रखते हैं। तुलसीदास डंके की चोट पर कहते हैं,

“पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।”

यह रामभक्ति का ही बल और प्रताप है कि पक्षियों के राजा गरुड़ का गर्वशमन एक तुच्छ-से पक्षी कौवे से होता हैं। यह कोई साधारण बात नहीं है कि जिस गरुड़ को विष्णु के परमसेवक का स्थान मिला, जो पक्षियों के राजा के रूप में पूज्य है, वह गरुड़ समस्त रूप-गुण-ज्ञानराशि सम्पन्न पक्षियों के साथ कागभुशुण्डि के आगे हाथ जोड़े खड़े हैं।

उससे ज्ञानोपदेश ग्रहण कर रहे हैं। उसकी भक्ति के आगे नतमस्तक हैं। यह कथा अपने प्रतीकार्थ में भक्ति के माध्यम से एक निंदित और तिरस्कृत पक्षी के सर्वोच्च सम्मान को पा लेने एवं उसके सम्मुख सम्राटों और शक्तिशाली सत्ताधीशों के नतमस्तक हो जाने की भी कथा हैं। यह कथा राम की भक्ति में ऊँच–नीच एवं छोटे–बड़े के भेद को समाप्त कर सामाजिक समरसता की प्रेरणा देती है।

वस्तुत: रामकथा का उद्गम ही संपूर्ण समाज के लिए हुआ है। वाल्मीकि रामायण के आरंभ में ही इस ग्रन्थ की फलश्रुति में लिखते हैं-
“पठन् द्विजो वागृषभत्वमीयात्,
स्यात्क्षत्रियो भूमिपतित्वमीयात्।

वणिग्जनः पण्यफलत्वमीयात्,
जनश्च शूद्रोऽपि महत्वमीयात्।।”

(बालकाण्ड , १/१००)
अर्थात् “इस ग्रन्थ को ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान् होवे, क्षत्रिय पढे तो राज्य प्राप्त करे, वैश्य पढ़े तो व्यापार में लाभ होवे और शूद्र भी पढ़े तो प्रतिष्ठा को प्राप्त होवे।”

बहुधा ऐसा उल्लेख किया जाता है कि प्राचीन वाङ्मय में शूद्रों को अध्ययन-अध्यापन से वंचित रखा गया। महामुनि वाल्मीकि की यह घोषणा इस मिथ्या और भ्रामक धारणा को ध्वस्त कर देती है। यहांँ शूद्र को भी रामकथा पढ़ने का अधिकार तो दिया ही गया है, इसके पाठ से उसका महत्व बढ़ने की भी कामना की गई है।

सामाजिक समरसता बढ़ाने में रामकथा की भूमिका का इससे बड़ा और क्या प्रमाण होगा?
आदिकवि वाल्मीकि श्रीराम की दो प्रमुख गुण बताते हैं– ‘‘रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।” (बालकाण्ड १/१३)
करुणामूर्ति राम संसार के जीवमात्र के रखवाले और धर्म के रक्षक हैं।

इसीलिए तो वे भक्तों पर प्रेम उड़ेलने वाले हैं। विश्वास न हो तो निषाद से पूछिए! शबरी से पूछिए! कोल, किरातों से, वनवासियों से पूछिए! पूछिए उस गिलहरी से जो अभी तक अपने राम की अंगुलियों के निशान अपनी पीठ पर लिए इतराती डोलती हैं।
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