स्वामी रामभद्राचार्य जी

स्वामी रामभद्राचार्य जी

स्वामी रामभद्राचार्य जी

14 जनवरी/जन्म-दिवस श्री स्वामी रामभद्राचार्य जी

विकलांग विश्वविद्यालय के निर्माता स्वामी रामभद्राचार्य

स्वामी रामभद्राचार्य जी

स्वामी रामभद्राचार्य जी

किसी भी व्यक्ति के जीवन में नेत्रों का अत्यधिक महत्व है। नेत्रों के बिना उसका जीवन अधूरा है; पर नेत्र न होते हुए भी अपने जीवन को समाज सेवा का आदर्श बना देना सचमुच किसी दैवी प्रतिभा का ही काम है। जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ऐसे ही व्यक्तित्व हैं।

स्वामी जी का जन्म ग्राम शादी खुर्द (जौनपुर, उ.प्र.) में 14 जनवरी, 1950 को पं. राजदेव मिश्र एवं शचीदेवी के घर में हुआ था। जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक अति प्रतिभावान होगा; पर दो माह की अवस्था में इनके नेत्रों में रोहु रोग हो गया। नीम हकीम के इलाज से इनकी नेत्र ज्योति सदा के लिए चली गयी। पूरे घर में शोक छा गया; पर इन्होंने अपने मन में कभी निराशा के अंधकार को स्थान नहीं दिया।

चार वर्ष की अवस्था में ये कविता करने लगे। 15 दिन में गीता और श्रीरामचरित मानस तो सुनने से ही याद हो गये। इसके बाद इन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पी-एच.डी) व विद्या वाचस्पति (डी.लिट) जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं। छात्र जीवन में पढ़े एवं सुने गये सैकड़ों ग्रन्थ उन्हें कण्ठस्थ हैं। हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सहित 14 भाषाओं के वे ज्ञाता हैं।

स्वामी रामभद्राचार्य जी

अध्ययन के साथ-साथ मौलिक लेखन के क्षेत्र में भी स्वामी जी का काम अद्भुत है। इन्होंने 80 ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में जहाँ उत्कृष्ट दर्शन और गहन अध्यात्मिक चिन्तन के दर्शन होते हैं, वहीं करगिल विजय पर लिखा नाटक ‘उत्साह’ इन्हें समकालीन जगत से जोड़ता है।

सभी प्रमुख उपनिषदों का आपने भाष्य किया है। ‘प्रस्थानत्रयी’ के इनके द्वारा किये गये भाष्य का विमोचन श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था।

बचपन से ही स्वामी जी को चौपाल पर बैठकर रामकथा सुनाने का शौक था। आगे चलकर वे भागवत, महाभारत आदि ग्रन्थों की भी व्याख्या करने लगे। जब समाजसेवा के लिए घर बाधा बनने लगा, तो इन्होंने 1983 में घर ही नहीं, अपना नाम गिरिधर मिश्र भी छोड़ दिया।

स्वामी जी ने अब चित्रकूट में डेरा लगाया और श्री रामभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1987 में इन्होंने यहाँ तुलसी पीठ की स्थापना की। 1998 के कुम्भ में स्वामी जी को जगद्गुरु तुलसी पीठाधीश्वर घोषित किया गया।

तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा के आग्रह पर स्वामी जी ने इंडोनेशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। इसके बाद वे मारीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन तथा अन्य अनेक देशों के प्रवास पर गये।

स्वामी रामभद्राचार्य जी

स्वयं नेत्रहीन होने के कारण स्वामी जी को नेत्रहीनों एवं विकलांगों के कष्टों का पता है। इसलिए उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला आवासीय विकलांग विश्विविद्यालय स्थापित किया। इसमें सभी प्रकार के विकलांग शिक्षा पाते हैं। इसके अतिरिक्त विकलांगों के लिए गोशाला व अन्न क्षेत्र भी है।

राजकोट (गुजरात) में महाराज जी के प्रयास से सौ बिस्तरों का जयनाथ अस्पताल, बालमन्दिर, ब्लड बैंक आदि का संचालन हो रहा है।

विनम्रता एवं ज्ञान की प्रतिमूर्ति स्वामी रामभद्राचार्य जी अपने जीवन दर्शन को निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं।

मानवता है मेरा मन्दिर, मैं हूँ उसका एक पुजारी
हैं विकलांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ उनका एक पुजारी

कृपया हमारे यूट्यूब चैनल https://www.youtube.com/watch?v=vX5Gz7bSCxU&t=146s

अन्य पोस्ट देखने के लिए हमारे वेबसाइट  देखे https://fitnesswellness2.com/

स्वामी रामभद्राचार्य जी

स्वामी रामभद्राचार्य जी

स्वामी विवेकानंद जयन्ती

स्वामी विवेकानंद जयन्ती

स्वामी विवेकानंद जयन्ती

स्वामी विवेकानंद जयन्ती

स्वामी विवेकानंद जयन्ती

राष्ट्रीय युवा दिवस विशेष: स्वामी विवेकानंद के राम

‘राम और सीता’ भारतीय राष्ट्र के आदर्श- स्वामी विवेकानंद (स्वामी विवेकानंद जयन्ती)

स्वामी विवेकानंद ने कहा था,”राम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श हैं। ‘राम… वीरता के युग के प्राचीन आदर्श सत्य और नैतिकता के अवतार आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पिता और सबसे बढ़कर, आदर्श राजा।’ है। स्वामी विवेकानंद जयन्ती पर इन पंक्तियों से सहज ही ये स्पष्ट होता है कि विवेकानंद की दृष्टि में राम और राम का चरित्र कैसा था।

उनका मानना था कि ‘जहां राम है, वहां काम नहीं है, जहां काम है, वहां राम नहीं है। रात और दिन कभी एक साथ नहीं रह सकते।’ इसी संबंध में प्राचीन ऋषियों की वाणी हमें उद्घोषित करती है, ‘यदि आप ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको ‘काम-कांचन’ यानी वासना और अधिकार का त्याग करना होगा। आज पूरी दुनियां रामलला की प्राण प्रतिष्ठा समारोह की तैयारियां कर रही है।

22 जनवरी को पूरा विश्व इस भव्य एवं दिव्य समारोह का साक्षी बनेगा। ऐसे में स्वामी विवेकानंद का उक्त कथन सहज प्रासंगिकता हो जाता है।

राजस्थान से भी स्वामी विवेकानंद का गहरा संबंध रहा है। स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवनकाल में राजस्थान की तीन यात्राएं की थी। यह यात्राएं उनके जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों में सम्मिलित रही। यात्रा के समय स्वामी जी ने सीकर में ‘जीण माता’ के दर्शन भी किए।

चाहे वह नरेंद्र से विवेकानंद नाम मिलना हो या शिकागो सम्मलेन में धारण की गई राजस्थानी पगड़ी व भगवा पोशाक, उन्हें राजस्थान से ही प्राप्त हुए।

पहली बार विवेकानंद फरवरी 1891 में अलवर आए। अलवर में उन्हें श्री गुरु चरण नाम के एक डॉक्टर मिलें, जिन्होंने स्वामी जी के आग्रह पर उनके रहने की व्यवस्था की। जहां उनके व्याख्यान सुनने मौलवी साहब सहित स्थानीय लोग भी आते थे।

विवेकानंद जी से संवाद के बाद अलवर महाराजा मंगल सिंह का मूर्ति पूजा के प्रति दृष्टिकोण बदला व वे इसे मानने लगे। अलवर में जिस स्थान पर विवेकानंद जी ठहरे थे उसे एक केंद्र के रूप में विकसित किया गया है, जहां अनेक सेवा कार्य आज भी चल रहे हैं।

मैं सब प्रकार के ‘विधि निषेध’ से ऊपर हूं (स्वामी विवेकानंद जयन्ती)-

स्वामी विवेकानंद अपनी यात्रा के अगले पड़ाव में 25 अप्रैल 1891 को आबू पहुंचे। यहां पर एक मुसलमान वकील के घर में निवास के कारण खेतड़ी महाराजा अजीत सिंह के निजी सचिव द्वारा मुस्लिम के घर में रहने पर प्रश्न करने पर स्वामी विवेकानंद ने कहा, ‘मैं सन्यासी हूं, आपके सब प्रकार के विधि निषेध से ऊपर हूं, मैं भंगी के साथ भी भोजन कर सकता हूं। इससे भगवान के प्रसन्न ना होने का मुझे भय नहीं है क्योंकि यह शास्त्र द्वारा अनुमोदित है। इस प्रसंग का उल्लेख ‘राजस्थान में स्वामी विवेकानंद’ पुस्तक में मिलता है। स्वामीजी की इस बात यह भी स्पष्ट होता है वे सामाजिक समरसता के प्रबल पक्षधर थे।

(स्वामी विवेकानंद जयन्ती )पत्र में लिखा ‘मेरे अध्यापक’—

आबू में 4 जून 1891 को स्वामी विवेकानंद की भेंट खेतड़ी महाराजा अजित सिंह से हुईं। 07 अगस्त को स्वामीजी खेतड़ी पहुंचे, जहां उन्होंने लगभग पांच माह का प्रवास किया। खेतड़ी के राजपंडित नारायणदास व्याकरण के ज्ञाता थे। उनसे स्वामीजी ने ‘अष्टाध्यायी’ और ‘महाभाष्य’ का अध्ययन किया।

विवेकानंद ने अमेरिका से एक पत्र लिखते समय नारायण दास के लिए ‘मेरे अध्यापक’ संबोधन का प्रयोग किया। विवेकानंद ने राजा अजीत सिंहजी को पदार्थ विज्ञान का अध्ययन भी करवाया। तथा खेतड़ी में एक लैबोरेट्री स्थापित करवाई, महल की छत पर टेलीस्कोप लगाया गया, जिससे तारामंडल का अध्ययन हो सके।

(स्वामी विवेकानंद जयन्ती )जब अपनाया ‘विविदिषानन्द से विवेकानंद’ नाम—

स्वामी जी अपना नाम विविदिषानन्द लिखा करते थे। राजा अजीत सिंह जी ने एक दिन हंसते हुए कहा, ‘महाराज आपका नाम बड़ा कठिन है, बिना अटके साधारण लोगों की समझ में इसका मतलब नहीं आ सकता। इसके अतिरिक्त अब तो आपका विविदिषा यानी ‘जानने की इच्छा’ का काल भी समाप्त हो चुका है।’ तब ‘मेरी समझ से आपके योग्य नाम है ‘विवेकानंद’..। उसी दिन से स्वामी जी ने अपना नाम विवेकानंद मान लिया।

कृपया हमारे यूट्यूब चैनल https://www.youtube.com/channel/UCXCLWxrPi94ULj1IxEdvBhg

(स्वामी विवेकानंद जयन्ती) मिसाल ‘मित्रता’ की—

वर्ष 1893 में शिकागो में होने वाले ‘धर्म सम्मेलन’ में जाने के लिए खेतड़ी महाराजा अजित सिंह ने विवेकानंद के लिए सभी जरूरी प्रबंध करवाए थे। इस पर विवेकानंद ने कहा था, ‘भारतवर्ष की उन्नति के लिए जो थोड़ा बहुत मैंने किया है वह खेतड़ी नरेश के न मिलने से न होता।’

12 दिसंबर 1897 को ‘ब्रह्मवादी’ में दी गई स्वामी सदानंद की रिपोर्ट के आधार पर, स्वामी जी द्वारा लिखित एक पत्र में लिखा है कि, ‘मैं और अजीत सिंह ऐसी दो आत्माएं हैं, जिनका जन्म एक दूसरे को सहायता करने के लिए हुआ है।

हम दोनों एक दूसरे के पूरक और प्रपूरक हैं।’ जब अमेरिका से विवेकानंद लौटे तक महाराज अजीत सिंह के आग्रह पर उनका पुन: राजस्थान आना निश्चित हुआ। इस दौरान वे अलवर में करीब छह दिन के प्रवास के बाद जयपुर में खेतड़ी हाउस में रहे।

पुन: खेतड़ी आगमन पर लोगों ने जलाए दीपक—
राजस्थान में विवेकानंद पुस्तक की पृष्ठ संख्या 121 में इस बात का उल्लेख मिलता है कि, ‘स्वामी जी का इस बार खेतड़ी आना किसी उत्सव से कम नहीं था। वहां के लोगों में एक अलग ही उत्साह था। खेतड़ी में चारों ओर रोशनी की गई।

तालाब की पेडियों पर, लोरिया घाटी में, घर के दरवाजों के आगे दीपक जलाए गए, भोपालगढ़ पर रोशनी की गई। स्वामी जी 23 दिसंबर 1897 में जयपुर के 10 दिन प्रवास के बाद 1 जनवरी को किशनगढ़ होते हुए जोधपुर गए। राजस्थान यात्राओं के दौरान वे पुष्कर भी गए।

अन्य पोस्ट देखने के लिए हमारे वेबसाइट  देखे  https://fitnesswellness2.com/

स्वामी विवेकानंद जयन्ती

स्वामी विवेकानंद जयन्ती

Pandit Deendayal Upadhyay : Biography (1)

Pandit Deendayal Upadhyay Biography (1)

पंडित दीन दयाल उपाध्याय : जीवनी

Pandit Deendayal Upadhyay Biography (1)

Pandit Deendayal Upadhyay Biography (1)

https://fitnesswellness2.com/

पंडित दीन दयाल उपाध्याय :बचपन

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे सामान्य व्यक्ति,सक्रिय कार्यकर्ता कुशल संगठक,प्रभावी नेता और मौलिक विचारक थे,साथ ही वे समाजशास्त्री,अर्थशास्त्री,राजनीति विज्ञानी और दार्शनिक भी थे।

पण्डित दीनदयाल जी का जन्म 25 सितंबर 1916 को जयपुर जिले के धानक्या गांव में हुआ। उनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय व माता जी का नाम रामप्यारी था। पण्डित दीनदयाल जी के पिताजी रेलवे में जलेसर स्टेशन पर सहायक स्टेशन मास्टर थे।

पण्डित दीनदयाल जी के छोटे भाई का नाम शिवदयाल था।  उस समय उनके नाना चुन्नी लाल शुक्ल धानक्या,जयपुर में स्टेशन मास्टर थे।  दीनदयाल जी की माता श्रीमति रामप्यारी जी को अधिकांश समय अपने पिता चुन्नीलाल जी के पास रहना होता था।

दीनदयाल जी का शिशुकाल अपने नाना जी चुन्नीलाल जी के धानक्या रेलवे-स्टेशन के क्वार्टर में ही व्यतित हुआ।  यहीं पर उनके शिशुकाल की संस्कार सृष्टि पल्लवित हुई।  पण्डित दीनदयाल जी ने चलना-फिरना व बोलना धानक्या में ही अपने नानाजी के यहां पर सीखा।

दीनदयाल जी ने अक्षरज्ञान व प्रारम्भिक शिक्षा अपने नाना चुन्नीलाल जी के रेलवे क्वार्टर पर ही प्राप्त की।

दीनदयाल जी जब 3 वर्ष के थे तब उनके पिता जी का देहांत हो गया।  तत्पश्चात, माता रामप्यारी जी को क्षय रोग हो गया और 8 अगस्त 1924 को उनका देहावसान हो गया था।

दीनदयाल जी धानक्या में उनके नाना  चुन्नीलाल जी के 1924 में सेवानिवृत्त होने तक यहां रहे।  तत्पश्चात वे मामा श्री राधारमण जी के साथ रहने लगे।  दीनदयाल जी को सबसे पहले गंगापुर सिटी, सवाई माधोपुर के रेलवे विद्यालय में 1 फरवरी 1924 को प्रिपरेयरी – बी कक्षा में भर्ती कराया।  थोड़े दिन बाद राधारमण जी का वहां से कोटा स्थानांतरण हो गया ।

दीनदयाल जी उनके साथ कोटा में अध्ययन हेतु चले गए।  वे अपने चचेरे मामा नारायणलाल जी के साथ राजगढ़ ( अलवर) उच्च प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने गए।  दीनदयाल जी के मामा नारायण लाल जी का स्थानांतरण राजगढ़ से सीकर हो गया।

उन्होंने सीकर में 1935 में दसवीं की परीक्षा श्री कल्याण हाई स्कूल में पढ़कर अजमेर बोर्ड से दी और अजमेर बोर्ड में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर स्वर्ण पदक प्राप्त किया।  उन्होंने संस्कृत,गणित और भूगोल में विशेष योग्यता के अंक प्राप्त किए।

सीकर के महाराजा श्री कल्याण सिंह जी ने दीनदयाल जी को स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया।  उन्होंने दीनदयाल जी को 250 रुपये का पुरस्कार और 10 रुपये मासिक छात्रवृत्ति भी स्वीकृत की।

तत्पश्चात, दीनदयाल जी इन्टरमीडियट की पढाई के लिए पिलानी गए जहां बिरला इन्टर कॉलेज से इन्टरमीडियट की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और स्वर्ण पदक प्राप्त किया।

पं.दीनदयाल उपाध्याय: उच्च शिक्षा  Pandit Deendayal Upadhyay : Biography (1)

सेठ घनश्याम दास जी बिरला ने उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान कर सम्मानित किया। पण्डित दीनदयाल जी का 1916 से 1939 तक का लगभग 23 वर्ष की आयु तक का जीवन राजस्थान में व्यतित हुआ।

https://www.youtube.com/channel/UCXCLWxrPi94ULj1IxEdvBhg

https://fitnesswellness2.com/75th-year-of-the-student-movement-dedicated-to-indianness-abvp/

आगे की उच्च शिक्षा के लिए वे कानपुर चले गए।  कानपुर में उनका सम्पर्क नाना जी देशमुख, सुंदर सिंह भण्डारी से हुआ। श्री भाऊराव जी देवरस के सम्पर्क में आने पर वे 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बन गए।  तत्पश्चात,दीनदयाल जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए।

सन 1952 में अखिल भारतीय जनसंघ का गठन होने पर वे संगठन मंत्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन 1953 में वे अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री निर्वाचित हुए। उस समय डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी जनसंघ के अध्यक्ष थे।

दीनदयाल जी अपना दायित्व इतनी कुशलता से व सतर्कता से निभाया कि डॉ मुखर्जी ने उनके बारे में टिप्पणी की ” यदि मुझे दीनदयाल मिल जाए तो मैं देश का राजनीतिक नक्शा बदल दूँगा। ”

Pandit Deendayal Upadhyay Biography (1)

Pandit Deendayal Upadhyay Biography (1)

Read More

डॉक्टर हेडगेवार जी

डॉक्टर हेडगेवार जी

डॉक्टर हेडगेवार जी का हिंदुत्व..!

– प्रशांत पोळ

किसी व्यक्ति के कार्य का मूल्यांकन करना है, या उस व्यक्ति ने किये हुए कार्य का यश – अपयश देखना हैं, तो उस व्यक्ति के पश्चात, उसके कार्य की स्थिती क्या है, यह देखना उचित रहता हैं. उदाहरण हैं – छत्रपती शिवाजी महाराज. मात्र पचास वर्ष का जीवन. लगभग तीस वर्ष उन्होंने राज- काज किया और हिंदवी साम्राज्य खडा किया. किंतु उनके मृत्यु के पश्चात उस हिंदवी स्वराज्य की परिस्थिती क्या थी? हिंदुस्थान का शहंशाह औरंगजेब तीन लाख की चतुरंग सेना लेकर महाराष्ट्र मे आया था, इसी हिंदवी स्वराज्य को मसलने के लिए, सदा के लिए समाप्त करने के लिए.

परिणाम?

सारी जोड़-तोड़ करने के बाद, वह संभाजी महाराज से मात्र २ – ४ दुर्ग (किले) ही जीत सका. आखिरकार छल कपट कर के, ११ मार्च १६८९ को औरंगजेब ने संभाजी महाराज को तड़पा – तड़पा के, अत्यंत क्रूरता के साथ समाप्त किया. उसे लगा, अब तो हिंदुओं का राज्य, यूं मसल दूंगा. लेकिन मराठों ने, शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र – राजाराम महाराज के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा. आखिर ३ मार्च १७०० को राजाराम महाराज भी चल बसे. औरंगजेब ने सोचा, ‘चलो, अब तो कोई नेता भी नहीं बचा इन मराठों का. अब तो जीत अपनी हैं.’

किन्तु शिवाजी महाराज की प्रेरणा से सामान्य व्यक्ति, मावले, किसान… सभी सैनिक बन गए. मानो महाराष्ट्र में घास की पत्तियां भी भाले और बर्छी बन गई. आलमगीर औरंगजेब इस हिंदवी स्वराज्य को जीत न सका. पूरे २६ वर्ष वह महाराष्ट्र में, भारी भरकम सेना लेकर मराठों से लड़ता रहा. इन छब्बीस वर्षों में उसने आग्रा / दिल्ली का मुंह तक नहीं देखा. आखिरकार ८९ वर्ष की आयु में, ३ मार्च १७०७ को, उसकी महाराष्ट्र में, अहमदनगर के पास मौत हुई, और उसे औरंगाबाद के पास दफनाया गया. जो औरंगजेब हिंदवी स्वराज्य को मिटाने निकला था, उसकी कब्र उसी महाराष्ट्र में खुदी. मुगल वंश मानो समाप्त हुआ. मराठों का दबदबा दिल्ली पर चलने लगा. बाद मे तो हिंदूओंका भगवा ध्वज लाल किल्ले की प्राचीर पर फहरने लगा. मात्र दो तीन जिलों तक फैला हुआ हिंदवी स्वराज्य छत्रपती शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात सारे भारत वर्ष मे फैल गया. अटक के भी उस पार तक गया.

इसी दृष्टिकोन से डॉक्टर केशव बळीराम हेडगेवार जी के कार्य को देखना चाहिए. 1889 से 1940, यह मात्र 51 वर्षों का जीवन प्रवास है. इस प्रवास के अंतिम 15 वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के पश्चात के है. जिन दिनों लोग हिंदू हितों की रक्षा के लिए बोलने मे भी घबराते थे, हिंदू कहलाने सकुचाते थे, उन्ही दिनों डॉक्टर हेडगेवार जी अत्यंत आत्मविश्वाससे बोल रहे थे, “हां, मै कहता हूं, यह हिंदू राष्ट्र है.”

आज डॉक्टर हेडगेवार जी के कार्य का स्वरूप क्या है?

डॉक्टर जी ने सन 1925 मे शुरू किया हुआ संघ आज भारत के कोने – कोने मे पहुंचा है. इसी के साथ विश्व के उन सभी देशों में, जहां हिंदू कम संख्या मे भी क्यूं ना हो, रहते है, उन सभी देशों में संघ के स्वयंसेवक है. और यह सज्जनशक्ती डॉक्टर हेडगेवार जी को अपेक्षित ऐसे हिंदू संस्कृती के मूलाधार राष्ट्र को वैभवशाली, समृद्ध और संपन्न बनाने मे जुटी है.

यह डॉक्टर हेडगेवार जी का निर्विवाद यश है.

डॉक्टर हेडगेवार जी ने अपने जीवन का उत्तरार्ध यह हिंदू संघटन के लिए दिया. बाल्यकाल से ही डॉक्टर हेडगेवार प्रखर देशभक्त थे, साथ ही प्रत्यक्ष कार्य करने वाले कृतिशील कार्यकर्ता थे. उनके मन मे जो अंगार जल रही थी वह परतंत्रता को लेकर थी. इसीलिए विशाल भारत वर्ष पर राज करने वाली अंग्रेजी सत्ता को उखाडकर फेकना यह उनके जीवन का ध्येय (लक्ष्य) बना था. इसी ध्येय का अनुसरण करते हुए उन्होने अपने महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) यह शहर चुना. वे बंगभंग आंदोलन के दिन थे. कलकत्ता यह क्रांतीकारियों का केंद्र बना था. हेडगेवार जी छह वर्ष कलकत्ता मे रहे. क्रांतिकारीयों की ‘अनुशीलन समिती’ के वे सदस्य बने. ‘कोकेन’ इस नाम से क्रांतिकारीयों मे जाने जाते थे. इस क्रांतिकारी आंदोलन को उन्होने अत्यंत निकट से देखा.

किंतु ‘इस रास्ते से स्वराज्य मिलेगा क्या?’ यह एक प्रश्न तथा साथ ही दुसरा महत्त्व का प्रश्न ‘स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारे देश की रचना कैसी होनी चाहिये?’ यह भी उनको सताये जा रहा था. हमारा देश जिन कारणों से गुलाम हुआ, उन कारणोंको दूर करते हुए नया स्वतंत्र भारत कैसा होना चाहिये इस पर वह सतत चिंतन करते थे. किंतु उनके प्रश्नों के उत्तर उनको नही मिल रहे थे. उन्होने कांग्रेस मे रहकर काम किया. पहिले सदस्य बने फिर पदाधिकारी. अत्यंत सक्रियतासे उन्होने काँग्रेस के आंदोलनों मे हिस्सा लिया. दो बार जेल गए. किंतु उनको समझ मे आया की काँग्रेसमें, या अन्य सभी प्रवाहो में, इस देश का मूलाधार हिंदू यह उपेक्षित हो रहा है. मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर हिंदूओं पर जबरदस्त दबाव बनाया जा रहा है. इसका दोषी भी हिंदू समाज ही है. हिंदू अपने तेजस्वी इतिहास को, शौर्य को, साहस को तेज को, गौरवशाली परंपराओंको भुलते जा रहे है.

स्वतंत्रता मिलने पर स्वतंत्र भारत मे हिन्दुओं की स्थिती, अर्थात देश की स्थिती कैसी रहेगी इसका भीषण और भयानक चित्र उनको सामने दिख रहा था. इसलिये वर्ष 1916 मे मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण करके वे नागपूर आये. अविवाहित रहकर संपूर्ण जीवन राष्ट्र कार्य के लिए लगाने का उनका प्रण था. अगले नौ वर्ष, वे स्वतंत्रता प्राप्ति के विविध प्रवाहों मे शामिल होकर अपने प्रश्न का उत्तर खोज रहे थे. 1923 और 1924 मे नागपूर मे मुस्लिम आक्रमकता बढ रही थी. डॉक्टर हेडगेवार काँग्रेस के पदाधिकारी थे. अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढने वे फरवरी 1924 मे वर्धा मे महात्मा गांधीजी से मिले. किंतु हिंदू – मुस्लिम समस्या के बारे मे उन्हे तर्कपूर्ण या समाधानकारक उत्तर नही मिले.

इन सभी प्रक्रियाओंसे निकलते हुए, अपने सहकारी कार्यकर्ताओं से, नेताओं से विचार विनिमय करते हुए, डॉक्टर जी के मन मस्तिष्क मे हिंदू संघटन की रूपरेखा तैयार हो रही थी. किसी का भी द्वेष न करते हुए, एक ऐसा हिंदू संघटन खडा करना, जिससे अनुशासन रहेगा, सैनिकी पद्धती का कामकाज रहेगा, और वैचारिक स्पष्टता होगी. इसी को आगे बढाते हुए वर्ष 1925 के विजयादशमी के दिन, अर्थात रविवार दिनांक 27 सितंबर को नागपूर मे डॉक्टर हेडगेवार जी के घर पर संघ प्रारंभ हुआ. यह संघटन मुस्लिम आक्रामकता के प्रतिक्रिया के स्वरूप बना था क्या? इसका स्पष्ट उत्तर है – नही. दिनांक 28 मार्च 1937 मे अकोला के इस्टर कॅम्प मे स्वयंसेवकोंके सामने बोलते हुए डॉक्टर जी ने कहा था,” हिंदुस्तान की रक्षा के लिए एखादा स्वयंसेवक संघ बना होता, जिसमे मुसलमान, ख्रिश्चन, अंग्रेज अथवा अन्य देशीय, अन्य धर्मीय लोग रहते या नही रहते, तो भी अपने हिंदू समाज को ऐसे संघ का निर्माण करना क्रमप्राप्त (आवश्यक) था.”

डॉक्टर साहब की सोच बहुत दूर की थी. यह राष्ट्र संपन्न होना चाहिये, समृद्ध होना चाहिये, शक्तिशाली बनना चाहिये और इसलिये इस देश की जो मूल अस्मिता है, पहचान है, जो हिंदू आचार, विचार और परंपरांओंपर आधारित है, वह सशक्त और बलशाली होना चाहिये. यह तभी संभव है जब हमारा देश स्वतंत्र होगा. इसीलिए संघ का प्रारंभिक ध्येय इस देश को स्वतंत्र करने का था.

संघ प्रारंभ होने के ढाई वर्ष बाद, अर्थात वर्ष १९२८ के मार्च महिने मे नागपूर – अमरावती रास्ते के ‘स्टार्की पॉईंट’ पर विशेष रूप से चुने हुए 99 स्वयंसेवकों को डॉक्टर जी ने स्वयं प्रतिज्ञा दी. इस प्रतिज्ञा मे भी स्वतंत्रता का यही भाव प्रकट होता है. प्रतिज्ञा मूल मराठी मे इस प्रकार है –
“मी सर्व शक्तिमान श्री परमेश्वराला व आपल्या पूर्वजांना स्मरून प्रतिज्ञा करतो की, मी आपला पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृती व हिंदू समाज यांचे संरक्षणाकरिता व हिंदू राष्ट्राला स्वतंत्र करण्याकरिता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघाचा घटक झालो आहे. संघाचे कार्य मी प्रामाणिकपणे, नि:स्वार्थ बुद्धीने आणि तनमनधने करून करीन, व हे व्रत मी आजन्म पाळीन.”
“जय बजरंग बली हनुमान की जय!”
(मै सर्व शक्तिमान श्री परमेश्वर और मेरे पूर्वजों का स्मरण करते हुए प्रतिज्ञा लेता हूँ कि अपना पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृती व हिंदू समाज की रक्षा के लिए एवं हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए मै राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूं. संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, निस्वार्थ बुध्दि से व तन – मन – धन से करुंगा. इस व्रत का मै आजन्म पालन करूंगा.
जय बजरंग बली. हनुमान जी की जय.)

डॉक्टरजी ने जब संघ प्रारंभ किया, तब ‘हिंदुत्व’ यह शब्द प्रचलन मे नही था. स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने 1927 से इस शब्द का प्रयोग करना प्रारंभ किया. इसके पहले स्वामी विवेकानंदजी ने हिंदुत्व के लिए ‘हिंदूइझम’ इस शब्द का प्रयोग किया था. ‘इझम’ याने वाद अर्थात ‘हिंदू वाद’. यह शब्द बादमे भी अनेकों बार प्रयोग किया गया. डॉक्टरजी ने ‘हिंदुत्व’ के समानार्थी शब्द के रूप मे ‘हिंदू हूड’ (Hindu hood) इस शब्द का प्रयोग किया है.

मद्रास के डॉक्टर नायडू ने तामिळनाडू मे हिंदू महासभा कॉन्फरन्स का आयोजन किया था. ‘इस कॉन्फरन्स मे डॉक्टर जी ने उपस्थित रहना चाहिए’ ऐसा आग्रह करने वाला पत्र डॉक्टर नायडू ने डॉक्टर जी को लिखा. किंतु स्वास्थ्य ठीक न होने से डॉक्टर जी बिहार के राजगीर मे गये थे. अर्थात उनका मद्रास जाना संभव नही था. इस संदर्भ में अपनी मृत्यू से तीन महिने पहले, अर्थात 1940 के 17 मार्च को, डॉक्टर जी ने मद्रास के डॉक्टर नायडू को पत्र लिखा. ‘हिंदू समाज मे हिंदू जनजागरण के कार्य की आवश्यकता’ इस पत्र में डॉक्टर जी ने अधोरेखित की है. डॉक्टर जी लिखते है – ” To arouse the dormant spirit of Hinduhood among our brethren of the South.”
(“दक्षिण के बंधूओं मे हिंदुत्व की सुप्त भावनाओं को जगाने का यह कार्य है”)

19 ऑक्टोबर 1929 को डॉक्टरजी ने नीलकंठ राव सदाफळ जी को एक पत्र भेजा है. इसमे डॉक्टर लिखते है, “स्वयंसेवकों के मन मे राष्ट्रीयत्व का पूर्णतः संचार करके, हिंदुत्व और राष्ट्रीयत्व में कोई भेद नही है, यह दोनो बाते एकही है, यह तर्कपूर्ण ढंग से समझाना, यह संघ शाखाओं का काम है.”

डॉक्टर जी ने एक जगह लिखा हैं –

सामर्थ्य है हिंदुत्व का।
प्रत्येक हिंदू राष्ट्रीय का।।
किंतु उसे संगठन का,
अधिष्ठान चाहिये..!

वे आगे लिखते है, ” हिंदुस्तान में आसेतू हिमाचल बसने वाले अखिल हिंदूओं का एकरूप और मजबूत संगठन खडा करना यही हमारा वर्तमान धर्म है. हम लोगों मे राष्ट्रीयत्व की भावना निर्माण करके, हिंदू यह सब एक राष्ट् के अंग है तथा हिंदू समाज के विभिन्न मत – पंथों के आचार – विचार एक ही प्रकार के है, यह वैज्ञानिक दृष्टीसे समझाकर, प्रत्यक्ष कार्य करना है.”

डॉक्टर जी का हिंदुत्व समझने के लिये अत्यंत सरल, सीधा और सुगम था. स्व. दादाराव परमार्थ उनके ‘परमपूजनीय डॉक्टर हेडगेवार’ इस लेख मे लिखते है, “यह देश हिंदुओं का है, यह तो हम सब का विश्वास था. हिंदू बाहर से आये है यह कल्पना हमे मान्य नही थी. मुलतः हिंदू इसी देश के है तथा अपने त्याग, समर्पण और कर्तृत्व से यह राष्ट्र उन्होने खडा किया है. इस देश का राष्ट्रीयत्व यह हिंदुत्व है, इस पर डॉक्टर जी की अटूट श्रद्धा थी. इसलिये, इस देश पर पूर्ण समर्पित भाव से प्रेम करने वाला हिंदू हैं. इस देश की प्रगती के लिये अपने आपको झोंककर काम करने वाला हिंदू हैं. इस देश की सर्वांगीण उन्नती के लिए प्रयत्न की पराकाष्ठा करने वाला हिंदू हैं. और ऐसे सारे हिंदूओंका संगठन बांधना यह डॉक्टर जी का ध्येय था. इतने सीधे, सरल और स्वच्छ नजरों से देखने के कारण डॉक्टर जी को हिंदू समाज के भेद-विभेद, जाती-पाती कभी दिखी ही नही. हिंदूओंका संगठन करते समय यह विचार गलतीसे भी उनके मन मे नही आया.”

और इसलिये जाती-पाती के चष्मे से जो लोग हिंदू समाज को देखते थे, उनको बडा आश्चर्य लगता था. महात्मा गांधीजी को भी इसका आश्चर्य लगा था. वर्ष 1934 के दिसंबर मे वर्धा मे संघ का शितकालीन शिवीर लगा था. उन दिनों महात्मा गांधीजी का मुकाम वर्धा शहर मे था. महात्मा जी के बंगले के पास ही यह शिवीर स्थल था, इसलिए महात्माजी को संघ के डेढ़ हजार स्वयंसेवकों के इस अनुशासित शिबिर को देखने की इच्छा हुई. उनकी सुविधानुसार समय तय हुआ. 25 दिसंबर 1934 मंगलवार को प्रातः छह बजे महात्माजी शिबिर को भेट देंगे यह निश्चित हुआ.

महात्मा जी तय समय पर शिबिर मे आए. वे वहां लगभग डेढ़ – दो घंटे रुके. उन्होने शिविर की सारी जानकारी ली. सभी स्वयंसेवक एक साथ रहते हैं, एकही पंक्ती में भोजन करते है, यह सुनकर और देखकर उन्हे आश्चर्य लगा. जो दिख रहा है, उसमे कितना तथ्य है यह जानने के लिए कुछ स्वयंसेवकों से प्रश्न भी पूछे. तब, “ये महार, ये ब्राह्मण, ये मराठा, ये दर्जी ऐसा भेदभाव हम नही मानते. हमारे बगल मे किस जाति का स्वयंसेवक बैठा है इसकी कोई जानकारी हमे नही रहती और ना ही वैसी जानकारी लेने की हम में से किसी की भी इच्छा रहती है. हम सब हिंदू है और इसीलिए बंधू है. अतः आपसी व्यवहार में उंच-नीच सोच रखने की कल्पना भी हम नही करते.” इस प्रकार के उत्तर महात्माजी को स्वयंसेवकों से मिले.

यह है डॉक्टर हेडगेवार जी का हिंदुत्व. बिलकुल सीधा और सरल. “हम सब हिंदू है, इसलिये बंधू है” इस एक वाक्य ने हिंदूओंका संगठन खडा किया, जो आज विश्व का सबसे बडा संगठन है.

डॉक्टर जी के संपूर्ण कार्यकाल में वह तात्विक या बौद्धिक विवादोंमे बहुत ज्यादा नही उलझे. उनका जोर, प्रत्यक्ष कार्य पर था. संघ प्रारंभ होने से पहले उन्होने ऐसे सभी विचार प्रवाहों का विस्तृत अध्ययन किया था. हिंदू समाज की कमियां, मुस्लिम आक्रांताओं के कारण हिंदू समाज मे आई हुई कुरीतियां, कुछ प्राचीन, अप्रासंगिक परंपराएं… इन सबसे वे अच्छी तरह परिचित थे. किंतु इन सब बातों के विरोध में बोलते रहने की अपेक्षा प्रत्यक्ष कार्य कर, कृती रूप उत्तर देने मे उनका विश्वास था.

विभिन्न वैचारिक प्रवाहोंमें, संस्थाओंमें, राजनैतिक दल में कार्य करने के कारण उनके विचारों मे पारदर्शिता और स्पष्टता थी. ‘क्या करना है’ यह उनको अवगत था. इसलिये संघ स्थापना के बाद उनके 15 वर्षों के कालखंड में, और बाद में भी, संघ पर अनेक संकट आने के बावजूद संघ बढता ही रहा. संघ के प्रारंभिक काल से इस बात की स्पष्टता थी, की संघ का संगठन, हिंदूओंके संरक्षण के लिए बना हुआ कोई रक्षक दल नही है. इसका अर्थ ऐसा की हिंदू समाज ने अपने संरक्षण के लिये संघ को, आज की भाषा में, ‘आऊटसोर्स’ किया हुआ नही है. संघ के स्वयंसेवक संकटोंका सामना करेंगे, संघर्ष करेंगे और बाकी हिंदू समाज इस संघर्ष की मजा देखता रहेगा, यह उन्हे अभिप्रेत नही था.

संघ का उद्देश्य यह हिंदू समाज का संगठन कर संपूर्ण समाज को सक्षम बनाना यह था / है. इसलिये ‘समाजही सब कुछ करेगा’ यह भूमिका पहले से आज तक कायम है. यही संघ के यश का सूत्र भी रहा है. संघ ने सही अर्थों में हिंदू समाज का सक्षमीकरण (empowerment) करना यह डॉक्टर हेडगेवार जी को अभिप्रेत था. इसलिये 1925 के बाद इस देश पर आये हुए सभी संकटोंका सामना संघ ने पुरे समाज को साथ लेकर किया है. दो – तीन वर्ष पहिले के करोना मे भी संघ स्वयंसेवकोने आगे बढकर अनेक काम किये. किंतु संघ ने कोरोना के इस संघर्ष में संपूर्ण समाज को साथ लेकर सक्रिय किया.

और यही डॉक्टर हेडगेवार जी की दूरदृष्टी सामने आती है. हिंदू संगठन की रचना बनाते समय उन्होंने अत्यंत स्पष्ट और साफ शब्दों मे कहा था, “हमे पुरे हिंदू समाज का संगठन करना है, समाज में संगठन नही करना है”. यह अत्यंत महत्वका सूत्र है. डॉक्टर जी के पहले भी हिंदू समाज मे हिंदू हितों के लिए काम करने वाली अनेक संस्थाये और संगठन तयार हुए थे. किंतु इन सबकी मर्यादाएं थी. समाज के एक प्रवाह जैसे यह संगठन / संस्थाये थी. किंतु प्रारंभसे ही डॉक्टरजीने संघ को हिंदू समाज का एक पंथ या प्रवाह न बनाते हुए, ‘संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन’ इसी स्वरूप मे खडा किया. इसलिये पहले जो संघ के विरोधक थे, वही बाद में संघ के सक्रिय स्वयंसेवक बने.

हिंदूओं का संगठन यह असंभव कल्पना है, ऐसा पहले बोला जाता था. किंतु डॉक्टर हेडगेवार जी ने इस बात को गलत सिद्ध करके बताया. संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन करने के लिये उन्होने जो संघ की कार्यपद्धती बनायी, उसकी विश्व मे कोई तुलना ही नही है. इसके कारण एकरूप, एकसमान सोच के, अपनी भारत माता को वैभव के परम शिखर पर पहुंचाने के ध्येय से प्रेरित, ऐसे करोडो हिंदुओं का, विश्व का सबसे बडा संगठन खडा हुआ. यह संगठन, डॉक्टर जी की मृत्यु के पश्चात भी 83 वर्ष सतत वर्धिष्णू हो रहा है.

दूरदृष्टी के, भविष्य को देखने की क्षमता रखने वाले डॉक्टर हेडगेवार जी का यह निर्विवाद यश है..!
– प्रशांत पोळ
(‘विवेक प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित ‘हिन्दुत्व’ इस ग्रंथ मे प्रकाशित आलेख के कुछ अंश)

कृपया निम्नलिखित हमारी यूट्यूब चैनल भी देखे :-

https://www.youtube.com/channel/UCXCLWxrPi94ULj1IxEdvBhg

हमारी अन्य पोस्ट भी देखे :-

https://fitnesswellness2.com/health-is-wealth-hindi-1/