संस्कार क्या है 1

संस्कार क्या है

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

एक राजा के पास सुन्दर घोड़ी थी। कई बार युद्व में इस घोड़ी ने राजा के प्राण बचाये और घोड़ी राजा के लिए पूरी वफादार थीI कुछ दिनों के बाद इस घोड़ी ने एक बच्चे को जन्म दिया, बच्चा काना पैदा हुआ, पर शरीर हष्ट पुष्ट व सुडौल था।

बच्चा बड़ा हुआ, बच्चे ने मां से पूछा: मां मैं बहुत बलवान हूँ, पर काना हूँ…. यह कैसे हो गया, इस पर घोड़ी बोली: “बेटा जब में गर्भवती थी, तू पेट में था तब राजा ने मेरे ऊपर सवारी करते समय मुझे एक कोड़ा मार दिया, जिसके कारण तू काना हो गया।

यह बात सुनकर बच्चे को राजा पर गुस्सा आया और मां से बोला: “मां मैं इसका बदला लूंगा।”

मां ने कहा “राजा ने हमारा पालन-पोषण किया है, तू जो स्वस्थ है….सुन्दर है, उसी के पोषण से तो है, यदि राजा को एक बार गुस्सा आ गया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उसे क्षति पहुचाये”, पर उस बच्चे के समझ में कुछ नहीं आया, उसने मन ही मन राजा से बदला लेने की सोच ली।

एक दिन यह मौका घोड़े को मिल गया राजा उसे युद्व पर ले गया । युद्व लड़ते-लड़ते राजा एक जगह घायल हो गया, घोड़ा उसे तुरन्त उठाकर वापस महल ले आया।

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

इस पर घोड़े को ताज्जुब हुआ और मां से पूछा: “मां आज राजा से बदला लेने का अच्छा मौका था, पर युद्व के मैदान में बदला लेने का ख्याल ही नहीं आया और न ही ले पाया, मन ने गवारा नहीं किया….इस पर घोडी हंस कर बोली: बेटा तेरे खून में और तेरे संस्कार में धोखा है ही नहीं, तू जानकर तो धोखा दे ही नहीं सकता है।”

“तुझ से नमक हरामी हो नहीं सकती, क्योंकि तेरी नस्ल में तेरी मां का ही तो अंश है।”

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

यह सत्य है कि जैसे हमारे संस्कार होते है, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है, हमारे पारिवारिक-संस्कार अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ जाते हैं, माता-पिता जिस संस्कार के होते हैं, उनके बच्चे भी उसी संस्कारों को लेकर पैदा होते हैं।

संस्कार क्या है (sanskar-kiya-hai)

*हमारे कर्म ही ‘संस्‍कार’ बनते हैं और संस्कार ही प्रारब्धों का रूप लेते हैं! यदि हम कर्मों को सही व बेहतर दिशा दे दें तो संस्कार अच्छे बनेगें और संस्कार अच्छे बनेंगे तो जो प्रारब्ध का फल बनेगा, वह मीठा व स्वादिष्ट होगा।

संस्कार क्या है

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आखिरी पड़ाव -1

आखिरी-पड़ाव

आखिरी पड़ाव  (akhiari-padaw)

कई बार लक्ष्य नजरों के सामने होते हुए भी हम लक्ष्य तक नही पहुँच पाते है! ऐसा क्यों?_

आखिरी पड़ाव (akhiari-padaw)

सुंदरबन इलाके में रहने वाले ग्रामीणों पर हर समय जंगली जानवरों का खतरा बना रहता था। खास तौर पर जो युवक घने जंगलों में लकड़ियाँ चुनने व शहद इकट्ठा करने जाते थे, उन पर कभी भी बाघ हमला कर सकते थे। यही वजह थी कि वे सब पेड़ों पर तेजी से चढ़ने-उतरने का प्रशिक्षण लिया करते थे।

प्रशिक्षण गाँव के ही एक बुजुर्ग दिया करते थे, जो अपने समय में इस कला के महारथी माने जाते थे। आदरपूर्वक सब उन्हें बाबा-बाबा कह कर पुकारा करते थे।

बाबा कुछ महीनों से युवाओं के एक समूह को पेड़ों पर तेजी से चढ़ने-उतरने की बारीकियाँ सिखा रहे थे और आज उनके प्रशिक्षण का आखिरी दिन था।

बाबा बोले, “आज आपके प्रशिक्षण का आखिरी दिन है, मैं चाहता हूँ, आप सब एक-एक कर इस चिकने और लम्बे पेड़ पर तेजी से चढ़ कर और उतर कर दिखाएँ।” सभी युवक अपना कौशल दिखाने के लिए तैयार हो गए।

पहले युवक ने तेजी से पेड़ पर चढ़ना शुरू किया और देखते ही देखते पेड़ की सबसे ऊँची शाखा पर पहुँच गया। फिर उसने उतरना शुरू किया। जब वह लगभग आधा उतर आया तो बाबा बोले, “सावधान, ज़रा संभल कर। आराम से उतरो, क़ोइ जल्दबाजी नहीं….।” युवक सावधानी पूर्वक नीचे उतर आया।

इसी तरह बाकी युवक भी पेड़ पर चढ़े और उतरे और हर बार बाबा आधा उतरने के बाद उन्हें सावधान रहने को कहते।

यह बात युवकों को कुछ अजीब लगी, और उन्ही में से एक ने पुछा, “बाबा, हमें आपकी एक बात समझ में नहीं आई, पेड़ का सबसे कठिन हिस्सा तो एकदम ऊपर वाला था, जहाँ पे चढ़ना और उतरना दोनों ही बहुत कठिन था, आपने तब हमें सावधान होने के लिए नहीं कहा, लेकिन जब हम पेड़ का आधा हिस्सा उतर आये और बाकी हिस्सा उतरना बिलकुल आसान था तभी आपने हर बार हमें सावधान होने के निर्देश क्यों दिये?”

बाबा मुस्कराये, और फिर बोले, “बेटे ! यह तो हम सब जानते हैं कि ऊपर का हिस्सा सबसे कठिन होता है, इसलिए वहाँ पर हम सब खुद ही सतर्क हो जाते हैं और पूरी सावधानी बरतते हैं। लेकिन जब हम अपने लक्ष्य के समीप आखिरी पड़ाव (akhiari-padaw) पहुँचने लगते हैं तो वह हमें बहुत ही सरल लगने लगता है….

हम जोश में होते हैं और अति आत्मविश्वास से भर जाते हैं। इसी समय सबसे अधिक गलती होने की सम्भावना होती है। यही कारण है कि मैंने तुम लोगों को आधा पेड़ उतर आने के पश्चात सावधान किया ताकि तुम अपनी मंजिल के निकट आकर आखिरी पड़ाव (akhiari-padaw)  पर कोई गलती न कर बैठो!“

सभी युवक बाबा की बात सुनकर शांत हो गए, आज उन्हें एक बहुत बड़ी सीख मिल चुकी थी।

मित्रों, सफल होने के लिए लक्ष्य निर्धारित करना बहुत ही जरूरी है, और यह भी बहुत ज़रूरी है कि जब हम अपने लक्ष्य को हासिल करने के करीब पहुँच जाएँ, मंजिल को सामने पायें, तो उस समय भी पूरे धैर्य के साथ अपना कदम आगे बढ़ाएँ।

कई बार हम लक्ष्य के निकट पहुँच कर अपना धैर्य खो देते हैं और गलतियाँ कर बैठते हैं, जिस कारण हम अपने लक्ष्य से चूक जाते हैं। इसलिए लक्ष्य के आखिरी पड़ाव पर पहुँच कर भी किसी तरह की असावधानी नहीं बरतनी चाहिए और लक्ष्य प्राप्त कर के ही दम ले।

प्रेरक : अधिकतर लोग सफलता के इसी घडी में अपने कार्य को संभाल नहीं पता है और असफलता के दल दल में फस जाते हैं।

आखिरी पड़ाव

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गेहूं है की तोंद

गेहूं है की तोंद

गेहूं है की तोंद

Side Effects Of Wheet

गेहूं की विशेषता।

*गेंहू मूलतः भारत की फसल नहीं है अमेरिका के एक हृदय रोग विशेषज्ञ हैं डॉ विलियम डेविस…उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी 2011 में जिसका नाम था “Wheat belly गेंहू की तोंद”…

यह पुस्तक अब फूड हेबिट पर लिखी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक बन गई है…पूरे अमेरिका में इन दिनों गेंहू को त्यागने का अभियान चल रहा है…कल यह अभियान यूरोप होते हुये भारत भी आएगा*

यह पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं और कोई फ़्री में पढ़ना चाहे तो भी मिल सकती है, चौंकाने वाली बात यह है कि डॉ डेविस का कहना है कि अमेरिका सहित पूरी दुनिया को अगर मोटापे, डायबिटिज और हृदय रोगों से स्थाई मुक्ति चाहिए तो उन्हें पुराने भारतीयों की तरह ज्वार, बाजरा, रागी, चना, मक्का मटर, कोदरा, जो, सावां, कांगनी ही खाना चाहिये गेंहू नहीं जबकि यहां भारत का हाल यह है कि 1980 के बाद से लगातार सुबह शाम गेंहू खा खाकर हम महज 40 वर्षों में मोटापे और डायबिटिज के मामले में दुनिया की राजधानी बन चुके हैं…।

गेंहू मूलतः भारत की फसल नहीं है. यह मध्य एशिया और अमेरिका की फसल मानी जाती है और आक्रांताओ के भारत आने के साथ यह अनाज भारत आया था…उससे पहले भारत में जौ की रोटी बहुत लोकप्रिय थी और मौसम अनुसार मक्का, बाजरा, ज्वार आदि…भारतीयों के मांगलिक कार्यों में भी जौ अथवा चावल (अक्षत) ही चढाए जाते रहे हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इन्हीं दोनों अनाजों का अधिकतम जगहों पर उल्लेख है..हमारे पिताजी,दादाजी, कहते थे कि 1975-80 तक भी आम भारतीय घरों में *बेजड़ (मिक्स अनाज, Multigrain) की रोटी का प्रचलन था जो धीरे धीरे खतम हो गया।

गेहूं है की तोंद

1980 के पहले आम तौर पर घरों में मेहमान आने या दामाद के आने पर ही गेंहू ( की रोटी बनती थी और उस पर घी लगाया जाता था, अन्यथा बेजड़ की ही रोटी बनती थी ……आज घरवाले उसी बेजड़ की रोटी को चोखी ढाणी में खाकर हजारों रुपए खर्च कर देते हैं….।

हम अक्सर अपने ही परिवारों में बुजुर्गों के लम्बी दूरी पैदल चल सकने, तैरने, दौड़ने, सुदीर्घ जीने, स्वस्थ रहने के किस्से सुनते हैं। वे सब मोटा अनाज ही खाते थे गेंहू नहीं।एक पीढ़ी पहले किसी का मोटा होना आश्चर्य की बात होती थी, आज 77 प्रतिशत भारतीय ओवरवेट हैं और यह तब है जब इतने ही प्रतिशत भारतीय कुपोषित भी हैं…फ़िर भी 30 पार का हर दूसरा भारतीय अपनी तौंद घटाना चाहता है….।

गेहूं है की तोंद

गेंहू की लोच ही उसे आधुनिक भारत में लोकप्रिय बनाये हुये है क्योंकि इसकी रोटी कम समय और कम आग में आसानी से बन जाती है…पर यह अनाज उतनी आसानी से पचता नहीं है…समय आ गया है कि भारतीयों को अपनी रसोई में 80-90 प्रतिशत अनाज जौ, ज्वार, बाजरे, रागी, मटर, चना, रामदाना आदि को रखना चाहिये और 10-20 प्रतिशत गेंहू को…

हाल ही कोरोना ने जिन एक लाख लोगों को भारत में लीला है उनमें से डायबिटिज वाले लोगों का प्रतिशत 70 के करीब है…वाकई गेहूं त्यागना ही पड़ेगा…. अन्त में एक बात और भारत के फिटनेस आइकन 54 वर्षीय टॉल डार्क हेंडसम (TDH) मिलिंद सोमन गेंहू नहीं खाते हैं….

मात्र बीते 40 बरसों में यह हाल हो गया है तो अब भी नहीं चेतोगे फ़िर अगली पीढ़ी के बच्चे डायबिटिज लेकर ही पैदा होंगे…शेष- समझदार को इशारा ही काफी है।

डायबिटीज से निजात पाने के लिए आप मल्टीग्रैन खा सकते हैं जिसमे जौ, चना , ज्वार, बाजरा , अलसी, सोयाबीन, मक्का, रागी, गेहूं कम मात्रा में डालकर खा सकते है जिससे आप बिविन्न प्रकार के विटामिन और खनिज प्राप्त हो सकता है ।  स्वस्थ्य रहने के लिए हमें पुराने मोटा अनाज को ही अपनाना पड़ेगा ।

गेहूं है की तोंद

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श्री हनुमान चलीसा 1

श्री हनुमान चलीसा

श्री हनुमान चलीसा

|| श्री हनुमान चालीसा ||

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि । 
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायक फल चारि ।

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।

॥ चौपाई  श्री हनुमान चलीसा ॥

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥

रामदूत अतुलित बलधामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे।
काँधे मूँज जनेऊ साजे॥

शंकर सुवन केसरी नंदन।
तेज प्रताप महा जग वंदन॥

विद्यावान गुणी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥

लाय सजीवन लखन जियाये।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राजपद दीन्हा॥

तुम्हरो मंत्र विभीषण माना।
लंकेश्वर भए सब जग जाना॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं॥

दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना॥

आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक ते काँपै॥

भूत पिशाच निकट नहीं आवै।
महावीर जब नाम सुनावै॥

नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥

संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥

सब पर राम तपस्वी राजा।
तिनके काज सकल तुम साजा॥

और मनोरथ जो कोई लावै।
सोई अमित जीवन फल पावै॥

चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥

साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥

अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥

राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥

तुम्हरे भजन राम को पावै।
जन्म जन्म के दुख बिसरावै॥

अंतकाल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई॥

और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्व सुख करई॥

संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरु देव की नाईं॥

जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥

॥ दोहा श्री हनुमान चलीसा ॥
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुरभूप॥

|| सियाराम चंद्र की जय ||

|| पवन सूत हनुमान की जय ||

|| उमापति महादेव की जय ||

|| बोलो रे भाई सब संतन की जय ||

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श्री हनुमान चलीसा

श्री हनुमान चलीसा

 

 

 

 

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

आधुनिक सभ्यता के मानदंड भी बड़े अदभुत है दिन-रात श्रम करके आप अर्थ उपार्जन करते हैं | संपन्नता आते ही सुख सुविधा के लिए अनेक साधन और यंत्र जताते हैं। यह मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम है।

अपना इन यंत्रों पर आपकी मिल्कियत से दूसरों पर आपका रोव  बढ़ता है,  मिल्कियत के नाम पर आप अपने गुलाम बनकर रह जाते हैं  |  यंत्रों पर आपकी निर्भरता जियो जियो बढ़ती जाती है, त्यों त्यों आप भी यंत्र बन जाते हैं ।  आपके रिश्ते संबंध व्यवहार से मानवता लुप्त हो जाती है और यांत्रिकता बढ़ती जाती है ।

सुविधाएं कम और मुसीबत अधिक बढ़ती जाती है मुसीबतें कम करने के नाम पर आसानी से कोई भी आपको ब्लैकमेल कर सकता है।  आप तो यंत्र बन ही गए हैं इसका अतः आपका आत्म गौरव स्वावलंबन आत्मविश्वास भी मिट चुका होता है।

आप केवल समझौता कर सकते हैं ब्लैकमेलर की तरह हरसंभव मांगे मानते रहना ही आपकी नियति बन जाता है,  आप कोई भी यंत्र इसलिए खरीदते हैं ताकि आपकी सुविधाओं में वृद्धि हो,  यंत्र आपका है यदि आपके यंत्र पर आपका ही नियंत्रण न हो तो कितनी शर्म की बात है परंतु होता प्रतिदिन यही है बिगड़े हुए यंत्रों को सुधारने वाले उनके निश्चित मैकेनिक्स इंजीनियर होते हैं। यंत्र सुधारने की उनकी अपनी शर्तें होती है नखरे होते हैं पारिश्रमिक होता है।

यह शरीर आपका है यह चाहे जब रिजेक्ट कर देने योग्य यंत्र नहीं है।  यंत्र को सुख-दुख नहीं होता,  शरीर को सुख-दुख होता है,  शरीर को यंत्र मत बनाइए।

अपने शरीर का नियंत्रण मेकैनिज्म यदि आप दूसरों को सौंपेंगे तो आपका  स्वामित्य,  स्वतंत्रता गौरव सब नष्ट हो जाएगा।

मनुष्य की सम्पन्नता या यंत्रो के गुलाम

आप भी यंत्र बंद कर रह जाएंगे यंत्र को कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार नाचा सकता है और आप भी नाचेंगे यही है गैर जिम्मेदाराना हरकत

अपना काम खुद ही करे।

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स्वस्थ रहने के 21 नियम

स्वस्थ रहने के 21 नियम

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आज कल के इस भाग दौड़ के के जिंदगी में हम सुब कुछ प्राप्त कर लेते है पर जो सबसे अमूल्य चीज है उसके ऊपर हम अपना ध्यान फोकस नहीं कर पाते है, कहा भी गया है ही “स्वास्थ्य ही धन है” , अंग्रेजी में कहा गया है की “हेल्थ इज वेल्थ” । स्वस्थ रहने के 21 नियम एक और कहावत है की ” पहला सुख निरोगी काया “ लेकिन हम सब कुछ पर तो इन्वेस्टमेंट कर देते हैं पर अपने स्वस्थ्य के प्रति हम उदासीन रहते हैं ।

स्वस्थ रहने के 21 नियम

स्वस्थ रहने के 21 नियम

आज के इस लेख में हम स्वस्थ रहने के 21 नियमो पर चर्चा करेंगे  :

1.  सुबह के समय खाली पेट गुनगुना पानी पियें ।

2.  सुबह खाली पेट कभी भी चाय ना पियें ।

3. दिन में 8-12 गिलास पानी सिप सिप करके जरूर पियें ।

4. अपने दवा को कभी भी ठन्डे पानी से ना लें

5. सुबहः खाने के साथ जूस पीना चाहिए ।

6. खाना को कम से कम 32 बार चबा का खाना चाहिए ।

7 खाना खाने के वक्त कभी भी पानी न पियें, पानी खाने खाने के 30 मिनट पहले या 30 मिनट के बाद पियें ।

8 खाने में सफ़ेद नमक बिलकुल बंद कर दे, सेंधा नमक का ही प्रयोग करे ।

9 खाना खाने के बाद सौंफ और गुड़ जरूर खाये।

10 सुबह या दोपहर में दही खाये ।

11 खट्टे फलो का सेवन रत में ना करें ।

12 टीवी या मोबाइल देखते हुए खाना ना खाएं।

13 रात को सोते समय अपने पास मोबाइल ना रखें ।

14 सुबह नास्ते से पहले और रात में खाना खाने के बाद 500 कदम पैदल चलें ।

15 रात ले समय दही, चावल और राजमा ना खाएं ।

16 फ्रीज़ में रखा ठंडा पानी ना पियें ।

17 रात ले समय खाने के बाद दाँत साफ करे और एक गिलास पानी पीकर सोएं।

18 शाम 5 बजे बाद भारी भोजन ना करें ।

19 हमेशा मोबाइल को बाये कान पर लगाकर मोबाइल कॉल्स का जबाब देवें।

20 रात में 10 बजे से सुबह 4 बजे तक सोएं ।

21 जिस आदमी के कब्ज रहता हैं उन्हें रात के समय पपीता खा कर सोना चाहिए ।

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AAJ MANAYE RAKSHABHANDAN – 1 आज मनायें रक्षाबंधन

AAJ MANAYE RAKSHABHANDAN

AAJ MANAYE RAKSHABHANDAN – आज मनायें रक्षाबंधन

आज मनायें रक्षाबंधन  –2

अतीत से नव स्फूर्ति लेकर ,  वर्तमान में दृढ़  उधम कर,

भविष्य में  दृढ  निष्ठा रख कर, कर्मशील हम रहे निरंतर ।। 1।।

 

आज मनायें रक्षाबंधन  –2

 

बलिदानों की परंपरा से, स्वराज है यह पावन जिसमें,

वंदन उनको कृतज्ञता से, ध्येय भाव का करें जागरण ।। 2।।

 

आज मनायें रक्षाबंधन  –2

 

स्वार्थ द्वेष को आज त्याग कर,  अहंभाव का पाश काट कर,

अपना सब व्यक्तित्व भुला कर,  विराट का हम करते दर्शन  ।। 3।।

 

आज मनायें रक्षाबंधन  –2

 

अरुण केतु को साक्षी रख कर, निश्चय वाणी आज गरज कर,

शुभ कृतिका यह मंगल अवसर,  निष्ठा मन में रहे चिरंतन ।। 3।।

 

आज मनायें रक्षाबंधन  –2

AAJ MANAYE RAKSHABHANDAN

AAJ MANAYE RAKSHABHANDAN – आज मनायें रक्षाबंधन

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Amrit Vachan – Raksha Bandhan ( 1 अमृत वचन – रक्षा बंधन )

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Amrit Vachan – Raksha Bandhan ( अमृत वचन – रक्षा बंधन )

वास्तविक रक्षाबंधन का दिन तो वही होगा,  जब हिंदुओं में उत्कृष्ट एवं तेजस्वी संस्कार जागृत होगा, जिसके सूत्र में परिश्रम करके हम अखिल हिंदू समाज को बांधकर सुसंगठित करेंगे। एकत्व की अनुभूति तथा शक्ति निर्माण का आधार हिंदुत्व का भाव है । संघ अपने दैनंदिन कार्यों से इसी भाव की सृष्टि में संलग्न है।   परम पूजनीय श्री गुरु जी

Amrit Vachan – Raksha Bandhan ( अमृत वचन – रक्षा बंधन )

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Raksha Bandhan – Bhav Geet (रक्षा बंधन – भाव गीत) शुद्ध सात्विक प्रेम अपने,  कार्य का आधार है 1

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Raksha Bandhan – Bhav Geet भाव गीत – रक्षाबंधन

शुद्ध सात्विक प्रेम अपने,  कार्य का आधार है ।

दिव्य ऐसे प्रेम में,  ईश्वर स्वयं सकार है ।

प्रेम जो केवल समर्पण,  भाव को ही जानता है।

और उसमें ही स्वयं की,  धन्यता बस मानता है ।

राष्ट्र भर में स्नेह भरना,  साधना का सार है ।।1।।

शुद्ध सात्विक ——————————-

Raksha Bandhan – Bhav Geet (रक्षा बंधन – भाव गीत)

भारत जननी ने किया, वात्सल्य से पालन हमारा ।

है कृपा इसकी मिला यह,  प्राण तन जीवन हमारा ।

भक्ति से हम हो समर्पित, बस यही अधिकार है ।।2।।

शुद्ध सात्विक ——————————-

जाति , भाषा,  प्रांत आदि,  वर्ग  भेदों को  मिटाने।

दूर अर्थाभाव करने, तम अविद्या को हटाने ।

नित्य ज्योतिर्मय हमारा,  हृदय स्नेहागार  है ।।3।।

शुद्ध सात्विक ——————————-

कोटी आंखों से निरंतर,  आज आंसू बह रहे हैं ।

आज अगणित बंधु भगनि, यातनाएं सह रहे हैं ।

दुख हर सुख दे सभी को,  बस यही अधिकार है ।।4।।

शुद्ध सात्विक ——————————-

Raksha Bandhan – Bhav Geet (रक्षा बंधन – भाव गीत)

Raksha-Bandhan-Bhav-Geet-रक्षा-बंधन-भाव-गीत-शुद्ध-सात्विक-प्रेम-अपने-कार्य-का-आधार-है-।

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GURU PURNIMA : RSS गुरु पूर्णिमा बौद्धिक 1

GURU PURNIMA

गुरु पूर्णिमा GURU PURNIMA आषाढ़ मास में पूर्णिमा के दिन मनाया जाया है । प्राचीन काल  से ही भारतीय संस्कृति में  गुरु पूर्णिमा का विशेष महत्व रहा है।

लगभग 5270 वर्ष पूर्व में महर्षि कृष्ण द्विपायन जी ने आज ही के दिन सभी उपनिषीदो एवं वेदों को संकलित कर दुनिया के सामने श्री मद भगवत गीता का लोकार्पण किया था। उनका जन्म भी इसी दिन हुए है।  बाद में उनका नाम वेद व्यास हुआ इसलिए इस पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।

GURU PURNIMA

GURU PURNIMA

गुरु किसे कहते है या गुरु का किया अर्थ होता है ?

गुरु वह जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाये , जो हमें अज्ञानता से ज्ञान की ओर ले जावे , जो हमारे जीवन का मार्गदर्शन कर सके उसे गुरु कहते है। व्यक्ति कि प्रथम गुरु उनकी माँ होती है ।

गुरु वे जो समदराष्ट्रा हो , सर्वग्राही हो , संस्पर्शी हो , सर्वव्यापी हो जो केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पुरे राष्ट्र का मार्ग दर्शन कर सके।

GURU PURNIMA पर गुरु की महिमा का वर्णन करना अति आवश्यक है ।

संत तुका राम ने कहा है कि गुरु के बिना समाधान नहीं होता है इसलिए गुरु के पाँव पखारिये।

जगत गुरु शंकराचार्य गुरु कि खोज में केरल से विंध्याचल तक का प्रवास किया।

नरेंद्र को स्वामी विवेका नन्द किसने बनाया वह गुरु ही था ।

गुरु की महिमा इस दोहे से हम समझते हैं  :-

” गुरु गोविन्द दोउ खड़े,  काके लागु पाँव ” 

” बलहारी गुरु आपने , गोविन्द दिओ बताय ।  “

यदि गुरु ओर गोविन्द यानि की भगवान एक साथ एक जगह खड़े हो तो किसके पहले पाँव छुए जाये , तब भगवान स्वयं ही गुरु का नाम पहले बता देते हैं, अर्थात गुरु का भगवान से भी बड़ा दर्जा मिला हुआ है । एक ओर दोहे से गुरु के महत्व का समजने की कोशिश करते है  :

” यह तन विष री बेलड़ी, गुरु अमृत का खान “।

” शीश दिए गुरु मिले , तो भी सस्ता जान ।। 

इस दोहे में साफ साफ अर्थ निकलता है की हमारा शरीर एक विष की बेल है जबकि गुरु अमृत की खान है , अगर अपना शीश देने के बदले अगर गुरु मिले तो वह भी सस्ता है।

गुरु और माँ एवं बाप कभी भी कठोर नहीं होते है , अगर कभी कठोर लगे तो एक बार रूक कर देखना चाहिए कि कही गुरु अपनी परीक्षा तो नहीं ले रही है  निम्न दोहा से यह बात समझ में आता है  :-

” गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है , गढ़ गढ़ काढ़े खोट “

” अंतर हाथ सहार दे,  बहार मारे चोट ” 

इस दोहे का मतलब है कि कैसे कुम्हार घड़ा को बनाते समय आकर देते समय पीटता हुआ नजर आता है पर ध्यान से देखने पर पता चलता है कि कुम्हार का एक हाथ घड़ा के अंदर से सहारा दिया हुआ होता है । ठीक वैसे गुरु और माँ बाप होते अगर आपको कभी लगता हैं की वे कठोरता के पेश आते हैं । 

एक व्यक्ति के अनेक गुरु हो सकते है । जिस किसी से भी कुछ आपने सीखा है वह उस क्षेत्र के आपके गुरु हुए । आप चींटी से भी कुछ सिख सकते हैं।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का प्रारम्भ विजय दसवीं के दिन सन 1925 में परम पूजनीय डॉक्टर केशव राव बलिराम हेडगेवार ने कुछ स्कूली छात्रों के साथ मिलकर किया था । अब 100 वर्ष होने को है ।

संघ कुल 6 उत्सव मानते है सबसे पहला वर्ष प्रतिपदा , हिन्दू साम्राज्यदिनों उत्सव, गुरु पूर्णिमा GURU PURNIMA , रक्षा बंधन , विजयदसवी उत्सव और मकर संक्रांति ।

गुरु पूर्णिमा GURU PURNIMA उसमे से एक है , हिन्दू समाज के तरह ही संघ भी गुरु पूर्णिमा GURU PURNIMA के उत्सव को मानते है ।

संघ में गुरु कौन ?

संघ में भगवा ध्वज को गुरु मानते है। संघ के निर्माता डॉ हेडगेवार ने काफी सोच विचार करने के बाद संघ को भगवा ध्वज को ही गुरु माना क्योकि किसी व्यक्ति में कभी भी स्वार्थ , कमी , ईष्या आदि आ सकते है लेकिन भगवा ध्वज जो की एक तत्व है । संघ के स्वयं सेवक भगवा ध्वज को ही गुरु मानते हुए प्रतिदिन संघ की शाखा में योग व्यायाम खेल और बौद्धिक कार्यक्रम करते है।    

भगवा ध्वज ही गुरु क्यों  / भगवा ध्वज  की महत्ता

प्राचीन काल से ही भगवा ध्वज हिन्दू संस्कृति का अमिट प्रतीकों में से एक है ।  श्री राम , श्री कृष्ण, अर्जुन, क्षत्रपति शिवा जी महाराज अपने रथों पर भगवा ध्वज को फहराया, हमारे पूर्वजो ने मंदिरो के ऊपर , मठो के ऊपर भगवा रंग के ही ध्वज को  लगाया है।

भगवा ध्वज वीरता  और  त्याग का प्रतिक है । जब भी कोई योद्धा रणक्षेत्र में लड़ने के लिए जाता है तब वह अपने शिर पर भगवा रंग के ही पत्ता बांध कर जाते है। अर्थात भगवा रंग को हिन्दू संस्कृति में विशेष महत्व है।

गुरु के प्रति समर्पण 

प्राचीन कल से ही गुरु प्रति समर्पण की चर्चा आपलोगो ने सुनी होगी जिसमे कुछ है :-

  1. कृष्ण , बलराम और सांदीपनि
  2. शिवजी महाराज और समर्थ दस जी महाराज
  3. गुरु भक्त आरुणि और गुरु द्यौम्य
  4. एकलव्य और द्रोणाचार्य

बौद्धिक में इन सभी के वर्णन कर सकते है।

समर्पण हमें किनको करनी है , समर्पण उनको जिनको समर्पण की कोई जरुरत नहीं है, जो हमारे समर्पण को हमारे लिए ही उपयोगी बना दे , जैसे सूरज को पानी को कोई जरुरत नहीं है फिर भी हम उनको जल चढ़ाते है और सूरज उस पानी का मेघ बनकर हमारे लिए ही उपयोगी बना देते है।

समर्पण उनको जिनसे हमारा समर्पण धन्य हो जाये।

धन का समर्पण करने से धन से मोह काम होता है , तन समर्पण करने से हमारा शरीर ह्रस्ट पुष्ट होता है , मन का समर्पण करने से अभिमान में  में कमी आती है ,

संघ में गुरु दक्षिणा 

जब गुरु की चर्चा चली है तब गुरु दक्षिणा का भी चर्चा होनी चाहिए। संघ आज तक किसी भी संस्था से कोई चंदा नहीं लेते है वह केवल और केवल स्वयं सेवक के द्वारा समर्पण के तौर पर दिया गया गुरु दक्षिणा से ही साल भर के खर्चो का निस्तारण करते है। संघ में सर्व प्रथम गुरु दक्षिणा सन 1928 में हुई जिसमें 84 रुपया और कुछ पैसे शामिल है , इस राशि में किसी स्वयं सेवक के आधा पैसे भी शामिल है।

इस बौद्धिक में कुछ समसमयकी विषय जोड़कर बौद्धिक का अंत करना चाहिए जैसे GURU PURNIMA 2024 में पर्यावरण जैसे विषय को जोड़कर अपनी वाणी को विराम देनी चाहिए।

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